प्रश्न तीन तरह के पूछे जाते हैं। एक तो तुम्हारी मूढ़ता से जन्मते हैं, उनका मैं कभी उत्तर नहीं देता क्योंकि मूढ़ता से उठे प्रश्न इस भांति पूछे जाते हैं कि जैसे पूछने वाला मुझ पर कोई अहसान कर रहा हो। मूढ़ता से भरे प्रश्न असंबंधित होते हैं। दूसरा बड़ा वर्ग है, उसके भी मैं उत्तर कभी नहीं देता। वे तुम्हारे पांडित्य से आते हैं। पांडित्य के प्रश्न इस तरह के होते हैं कि वेद में ऐसा कहा है, आपने ऐसा क्यों कहा? पांडित्य के प्रश्न ऐसे होते हैं, जैसे कोई मेरी परीक्षा ले रहा हो। मूढ़ ऐसे पूछता है, जैसे इसका जवाब हो ही नहीं सकता। इन दोनों को मैं छोड़ देता हूं। मूढ़ता का अर्थ ही यह है कि उसे पता ही नहीं है कि उसके जीवन की समस्याएं हैं, जो हल करनी हैं। कि जीवन उलझन में है, उसे सुलझाना है; कि जीवन अटका है, यात्रा करनी है। वह जमाने भर के प्रश्न पूछेगा, जिनमें कोई तुक नहीं है।
तब बचते हैं, मुश्किल से दस प्रतिशत प्रश्न, जो जिज्ञासा से जन्मते हैं, मुमुक्षा से। जो तुम्हारी जीवन की खोज से आविर्भूत होते हैं। जो तुम्हारी जीवन की समस्या से संबंधित होते हैं। जो प्रामाणिक हैं। जिनको हल करने पर तुम्हारे जीवन का अर्थ निर्भर होगा। जो हल होंगे तो तुम्हारे जीवन का ढंग रूपांतरित होगा। जो तुम्हारी प्यास हैं, भूख हैं; बौद्धिक नहीं हैं, खोपड़ी से नहीं आ रहे हैं। तुम्हारे समग्र अस्तित्व से आविर्भूत हो रहे हैं। जिनके ऊपर तुम्हारी जिंदगी दांव पर लगी है। उनके हल होने पर बहुत कुछ निर्भर है। वे प्रश्न नहीं हैं, उन प्रश्नों में तुम खुद हो। वे जीवंत हैं। न तो शास्त्रों से उधार लिए गए हैं, न अहंकार की जड़ता से पैदा हुए हैं।
मैं देखता हूं कि प्रश्न प्रामाणिक हैं- इसे देखने में देर नहीं लगती क्योंकि तुम्हारे प्रश्न में तुम्हारे आंसू छिपे होते हैं, तुम्हारी प्यास छिपी होती है, तुम्हारे प्राण धड़कते हैं, तुम मेरे पास आते हो। न तो तुम्हारे पास कोई उत्तर है पांडित्य का; और न तुमने किसी मूढ़तावश पूछ लिया है। तुमने मुमुक्षा से पूछा है। तुम खोजी हो। तुम यात्रा पर निकले हो। तुम्हारी यात्रा पर मैं तुम्हें थोड़ा साथ दे सकूं, तुम्हारा थोड़ा बोझ कम कर सकूं, तुम्हारे भटकाव को थोड़ा कम कर सकूं, तुम्हें मार्ग पर ले आ सकूं, उन्हीं प्रश्नों के उत्तर देता हूं और ये जो प्रश्न हैं, इनके रूप ही भिन्न-भिन्न होते हैं; इनका प्राण एक ही होता है।
अगर बहुत गौर से देखो तो ये जो तीसरी कोटि के प्रश्न हैं, जिनके मैं उत्तर देता हूं, ये एक ही प्रश्न के विभिन्न ढंग हैं और इनका एक ही उत्तर है। जिस दिन तुम जानोगे, जागोगे, उस दिन तुम पाओगे, तुमने बहुत-बहुत ढंग से एक ही प्रश्न पूछा था; और मैंने बहुत-बहुत ढंग से एक ही उत्तर दिया था। जैसे ही मुझे उस एक की प्रतिध्वनि मिलती है किसी प्रश्न में, मैं सदा तत्पर हूं उत्तर देने को इसलिए कोई धर्म-संकट खड़ा नहीं होता। मामला बिल्कुल सीधा-साफ है।
तुम्हारे प्रश्न को हाथ में लेते ही, तुम्हारी पंक्तियों को पढ़ते ही तुम्हारे प्राण वहां उपस्थित हो जाते हैं, कैसे तुमने पूछा है। जिस दिन तुम सरलता से, सहजता से, समस्या को हल करने की आकांक्षा से, सद्भाव से पूछते हो, उस दिन मैं सदा तत्पर हूं। धर्म-संकट कुछ भी नहीं है। चीजें बिल्कुल साफ हैं। जैसे तुम्हारे चेहरे पर मैं तुम्हारे क्रोध को पढ़ता हूं, तुम्हारी आंखों में तुम्हारे अहंकार को; ऐसे तुम्हारे हस्ताक्षरों में, तुम्हारे शब्दों में, तुम्हारे वचन के विन्यास में, तुम्हारे प्रश्न के बनाने में भी तुम्हें पढ़ता हूं। वह भी तुम्हारा है। तुम उसमें पूरे-पूरे मेरे सामने उपस्थित हो जाते हो।
मैं तुम्हारे प्रश्न नहीं चुनता, तुमको चुनता हूं और जब तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर न दूं, तो तुम विचार करना कि तुम क्यों नहीं चुने गए? तुम जरूर दो में से कोई एक बात पाओगे। या तो मूढ़ता से पूछा था, या पांडित्य से पूछा था; मुमुक्षा नहीं थी। मैं यहां हूं कि तुम्हारा मोक्ष सरल हो जाए। वह तुम्हारी मुमुक्षा के बिना नहीं होगा। मैं तुम्हें मोक्ष की तरफ इशारा तभी कर सकता हूं, जब तुम्हारे प्रश्न ने मुमुक्षा की तरफ आकांक्षा की हो; उससे अन्यथा होने का कोई उपाय नहीं।
ओशो।
मन की स्वतंत्रता है संन्यास, तो फिर मन क्या है? ओशो से जानें
'स्व’ से मुक्त होना ही सबसे महत्वपूर्ण है
Spiritual News inextlive from Spiritual News Desk