बारह साल पहले यही सवाल जनरल परवेज़ मुशर्रफ के सामने भी था. लेकिन इसका दो टूक और जायज़ जवाब खोजने के बजाए उन्होंने फ़रेब और दोगलेपन का सहारा लिया.
मुशर्रफ़ ने न सिर्फ़ देश और सहयोगियों बल्कि कभी-कभार तो ख़ुद से भी झूठ बोला. और उनके इस फ़रेब की आड़ में तालिबानी एक-दो क़बाइली इलाकों से शुरू होकर पूरे स्वात इलाके में फैल गए.
छह साल पहले लगभग एक ही वक़्त पर यही सवाल आसिफ़ अली ज़रदारी और जनरल कयानी के सामने उभरा और दोनों के बीच टेनिस की गेंद बन गया. ज़रदारी की सरकार ने दहशतगर्दी से निबटने के लिए तमाम योजनाएं बनाईं और इन्हें लागू करने की ज़िम्मेदारी फ़ौज़ी नेतृत्व को दे दी.
जनरल कयानी ने पहले मीडिया के ज़रिए और फिर सीधे सरकार को यह कह कर टाल दिया कि जब तक धार्मिक कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ देश में एक राय पैदा नहीं हो जाती फ़ौज़ कोई अंतिम रणनीति नहीं बना पाएगी.
इस दौरान अल क़ायदा और तालिबान के लड़ाकों ने पाकिस्तान सेना के मुख्यालय और नौसेना के अड्डे पर हमले किए और अमरीकी कमांडो एबटाबाद तक पहुँच गए.
और इस साल यही सवाल मियाँ नवाज़ शरीफ़ और इमरान ख़ान के सामने आया तो मियाँ साहब ने तो इस पर ख़ामोशी अख़्तियार कर ली जबकि इमरान ख़ान खुल्लम-खुल्ला तालिबान के साथ जा खड़े हुए. नतीजतन अमरीकियों ने अपने ड्रोन का रुख अफ़ग़ानिस्तान के लड़ाकों से पाकिस्तान पर हमलों और कट्टरपंथियों की ओर कर दिया.
किसकी जंग?
और यूँ पिछले बारह सालों में ये जंग किसी की जंग न बन सकी. न ही जनरल मुशर्रफ़, न जनरल कयानी, न आसिफ़ अली ज़रदारी और न ही मियाँ नवाज़ शरीफ की.
शायद इसीलिए अल क़ायदा और तालिबान ने इस जंग में कामयाबियाँ हासिल की और हालात को इस राह पर ला खड़ा किया कि आज जनता की नज़र में पाकिस्तान का पूरा राजनीतिक नेतृत्व लड़ाकों के सामने माफ़ी मांगने के लिए हाथ जोड़कर खड़ा है जबकि समूचा अंतरराष्ट्रीय समुदाय पाकिस्तानी नेतृत्व पर आलोचना के कोड़े बरसा रहा है.
लेकिन इन बारह सालों में एक बात बिल्कुल साफ़ हो गई है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय अब ज़ुबानी आलोचना को नाकाफ़ी समझने लगा है. अब फ़ैसला ये है कि धार्मिक कट्टरपंथियों से या तो पाकिस्तान निपटे या फिर दुनिया ख़ुद निपट लेगी.
पाकिस्तानी की क्षेत्रीय संप्रभुता का राग सुनने के लिए अब कोई तैयार नहीं है. ये महज़ इत्तेफाक़ नहीं है कि पाकिस्तान के बाहरी मामलों के सलाहकार के इस बयान के फौरन बाद कि अमरीका ने शांति वार्ता के दौरान ड्रोन हमले न करने का भरोसा दिया है, अमरीकी ड्रोन क़बाइली इलाक़ों से बंदोबस्ती इलाक़ों में आ धमके.
अगले साल अफ़ग़ानिस्तान से विदेशी फ़ौजें जाना शुरू हो जाएंगी लेकिन अमरीकी ड्रोन पाकिस्तान के हवाई क्षेत्र में ही रहेंगे.
जनरल राहील ये तो जानते ही होंगे कि आम हो या ख़ास, पाकिस्तान में जितनी उम्मीद सेना प्रमुख से की जाती है उतनी राजनीतिक नेतृत्व से कभी नहीं की जाती.
शायद उन्हें इस बात का भी अहसास हो कि जनरल मुशर्रफ़ के बाद न सिर्फ़ देश में बल्कि दुनयिा भर में पाकिस्तान में एक और राजनीतिक जनरल देखने की ख़्वाहिश और हौसला तकरीबन दम तोड़ चुका है.
अब पाकिस्तान और दुनिया को उन से महज़ ये उम्मीद है कि वो देश के सैन्य मामलों को संभालने में उस पेशेवर क़ाबीलियत का प्रदर्शन करें जो जनरल कयानी अपने छह साल के कार्यकाल में छह दिन भी नहीं कर पाए.
और ऐसा करने के सिवाए इसके और कोई रास्ता नहीं कि वो दहशतगर्दी की इस जंग को अपनाएं जिस का अब तक नाम लेने से भी पाकिस्तान के राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व के पर जलते रहे हैं.
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