गब्बर : अरे ओ सांभा, कितना इनाम रखे है सरकार हम पर
सांभा: पूरे पचास हज़ार।
गब्बर: सुना... पूरे पचास हज़ार। और ये इनाम इसलिए है कि यहाँ से पचास-पचास कोस दूर गाँव में जब बच्चा रोता है तो माँ कहती है बेटा सो जा..सो जा, नहीं तो गब्बर आ जाएगा।
हिंदी सिनेमा के शायद सबसे यादगार खलनायकों में से एक गब्बर सिंह का 'पचास हज़ार' के इनाम वाला ये डायलॉग बेहद मशहूर है।
ये तो हुई फ़िल्मी गब्बर की बात, जिसका रोल अमजद ख़ान ने निभाया था।
लेकिन मध्य प्रदेश के बीहड़ों में 50 के दशक में गब्बर उर्फ़ गबरा नाम का असली डाकू भी था, जिसका खौफ़ दूर-दूर तक था और तीन राज्यों की पुलिस ने उनके नाम पर 50 हज़ार रुपए का इनाम रखा हुआ था।
कहा जाता है कि डाकू गब्बर सिंह ने एक प्रण लिया था कि वो अपनी कुल देवी के सामने 116 लोगों की कटी नाक की भेंट चढ़ाएगा, क्योंकि एक तांत्रिक के मुताबिक़, अगर वो ऐसा करता तो पुलिस या किसी और की गोली से नहीं मरेगा।
इस तरह वो कुल 26 लोगों की नाक काट चुका था जिसमें पुलिसवाले भी शामिल थे।
गब्बर सिंह के किस्से दर्ज हैं केएफ रुस्तमजी की डायरी में, जो 50 के दशक में मध्य प्रदेश के पुलिस महानिरीक्षक थे।
रुस्तमजी रोज़ाना डायरी लिखा करते थे, जिसे रुस्तमजी की अनुमति से पूर्व आईपीएस अधिकारी पीवी राजगोपाल ने एक क़िताब की शक्ल में उतारा- 'द ब्रिटिश, द बैंडिट्स एंड द बॉर्डरमैन।'
गब्बर का खौफ़
शोले के गब्बर की कहानी सीधे-सीधे असली गब्बर की कहानी से नहीं ली गई है, लेकिन फिल्म के लेखक सलीम ख़ान मध्य प्रदेश के खूँखार डाकुओं की कहानी से वाकिफ़ थे, क्योंकि उनके पिता मध्य प्रदेश पुलिस में थे।
भिंड के डांग गाँव में 1926 में असली गब्बर उर्फ़ गबरा का जन्म हुआ था। 1955 में गाँव छोड़ गब्बर सिंह डाकू कल्याण सिंह गूजर के गैंग में शामिल हो गया और कुछ महीने बाद ही अपना गैंग बना लिया।
रुस्तमजी ने डायरी में लिखा है कि भिंड, ग्वालियर, इटावा, ढोलपुर में गब्बर का इतना ख़ौफ था कि उसके बारे में कोई भी गाँववाला जानकारी देने को तैयार नहीं था और पुलिस के लिए उसे पकड़ना मुश्किल हो गया था।
उलटे डाकुओं के साथ मुठभेड़ में पुलिस को ही ज़्यादा नुकसान झेलना पड़ता था।
ये वो दौर था जब चंबल में कोई 16 गैंग थे और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक इसे लेकर काफ़ी चिंतित थे।
'पूरो गैंग बैठे हो, सबको ख़त्म कर डालो'
आख़िरकर गब्बर सिंह को ख़त्म करने का ज़िम्मा 1959 में युवा पुलिस अधिकारी राजेंद्र प्रसाद मोदी के कंधों पर आया, जो उस समय डिप्टी एसपी थे।
मोदी ने उसी साल कुख्यात डकैत पुतलीबाई के ख़िलाफ़ हुए अभियान में भी हिस्सा लिया था।
अपनी डायरी में रुस्तमजी लिखते हैं, "गब्बर के ठिकाने के बारे में नवंबर 1959 में मोदी को रामचरण नाम के एक गाँववाले (जिसके बच्चे की जान मोदी ने बचाई थी) ने जानकारी दी थी।"
सुबह पौ फटने से पहले रामचरण मोदी के घर आया और कहा- "पूरो गैंग बैठे हो, सबको ख़त्म कर डालो।"
पुलिस और डकैतों के बीच ज़बर्दस्त संघर्ष हुआ। मोदी रात ढलने से पहले ऑपरेशन ख़त्म करना चाहते थे।
लड़ते-लड़ते मोदी गैंग के काफ़ी करीब चले गए। उन्होंने दो ग्रेनेड फेंके और डाकुओं पर हमला किया।
हालांकि एक दफ़ा ग्रेनेड की सेफ़्टी पिन जैम हो गई थी। इस बीच डाकुओं की तरफ से गोलीबारी जारी थी।
ग्रेनेड के प्रभाव से गब्बर सिंह का जबड़ा बुरी तरह जख्मी हो गया था।
इस अभियान की खास बात ये थी कि ये पूरी मुठभेड़ लोगों के सामने हुई।
रेलवे लाइन पर रेल रोककर लोग रेलगाड़ी की छत पर से अभियान को देख रहे थे। इसी तरह हाइवे पर बसों की छतों पर लोगों ने इसे देखा।
नेहरू को तोहफ़ा
बाद में ग्वालियर डिवीज़न के कमिश्नर ने आकर राजेंद्र प्रसाद मोदी से कहा, "तुम डाकुओं के इतने पास क्यों चले गए। तुम मर भी सकते थे। तुम पागल हो।"
जवाब किताब में रुस्तमजी देते हैं, "बहादुर और पागल आदमी में फ़र्क होता है। अगर मोदी उस समय वो पागलपन नहीं दिखाते तो वो इस बहादुरी से काम नहीं कर पाते।"
जिस तरह गब्बर सिंह का ख़ात्मा हुआ उसके एक दिन बाद यानी 14 नवंबर को नेहरू का 70वां जन्मदिन था।
रुस्तमजी लिखते हैं कि उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि नेहरू को क्या तोहफ़ा दिया जाए।
रुस्तमजी छह साल तक नेहरू के मुख्य सुरक्षा अधिकारी रह चुके थे।
जब 13 नवंबर की शाम को गब्बर सिंह का ख़ात्मा हुआ तो मध्य प्रदेश पुलिस की ओर से इस ख़बर को तोहफ़े के तौर पर पेश किया गया।
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