सप्ताह में चार दिन काम और तीन दिन आराम. इस विचार पर फिर बहस हो रही है.

अब ये बहस अफ्रीकी देश गांबिया में सरकारी कर्मचारियों के लिए चार दिन के सप्ताह की घोषणा से शुरू हुई है.

मुस्लिम बहुल गांबिया के राष्ट्रपति याहया जामेह का तर्क है कि इससे देश का सही दिशा में विकास होगा.

राष्ट्रपति का कहना है कि शुक्रवार की छुट्टी मिलने से वहां के लोग ठीक से नमाज अदा कर पाएंगे.

वैसे, 1994 से गांबिया की सत्ता पर काबिज़ राष्ट्रपति जामेह अपने इस तरह के अनूठे फैसलों के लिए जाने जाते हैं.

उन्होंने 2007 में ‘एचआईवी’ से तीन दिन में निबटने का दावा किया था, वो भी किसी जड़ी-बूटी की मदद से. इस पर दुनिया भर के डॉक्टरों ने हंगामा मचाया था.

चार दिन का सप्ताह

राष्ट्रपति के नए फैसले को लेकर आलोचकों का कहना है कि इससे गरीब अफ्रीकी देश गांबिया की गरीबी और बढ़ेगी और यह फैसला आलस को भी बढ़ावा देगा.

गांबिया की आबादी 18 लाख है. ये देश बादाम की खेती और निर्यात के लिए जाना जाता है जो यहां की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. पर्यटन यहां का दूसरा प्रमुख व्यवसाय है.

आलोचक मानते हैं कि इस फैसले से पश्चिमी देशों से कारोबारी रिश्तों पर असर पड़ेगा जहां सिर्फ शनिवार और रविवार की छुट्टी होती है.

हालांकि, अधिकांश इस्लामी देशों में शुक्रवार और शनिवार को ही छुट्टियां रहती हैं.

नए कानून के मुताबिक गांबिया के सरकारी कर्मचारी अब सोमवार से गुरुवार तक सुबह आठ बजे से शाम के चार बजे तक काम करेंगे.

क्या है प्रचलन

चार दिन के सप्ताह को लेकर दुनिया भर में अलग-अलग समय पर कई बार बहस चली है.

2008 में अमरीकी राज्य ऊटा में 17 हजार सरकारी अधिकारियों ने चार दिन और दस घंटे काम का प्रचलन शुरू किया था मगर 2011 में ये खत्म हो गया और पांच दिन का कामकाजी सप्ताह वापस चलन में आ गया.

इसके अलावा ऑरिगन और टेक्सास में भी इस पर विचार किया गया. लेकिन विधायिका ने इस बिल को पास नहीं किया.

जॉर्जिया और वर्जिनिया में इस पर विचार करने का जिम्मा कुछ संस्थाओं को सौंप दिया गया.

नीदरलैंड्स में चार दिन का सप्ताह काफी चर्चित है जहां तीन में से एक व्यक्ति या तो चार दिन में 40 घंटे से काम करता है या पार्टटाइम नौकरी.

हालांकि पश्चिमी देशों में पांच दिन का सप्ताह चलन में है.

भारत की तो छोड़ ही दें क्योंकि यहाँ ज़्यादातर लोग हफ़्ते में छह दिन काम करते हैं.

तार्किक पहलू

‘न्यू इकनॉमिक फाउंडेशन’ की समाज नीति प्रमुख एन्ना कोटे कहती हैं कि कम दिन काम के समाजिक पहलू भी हैं.

उनका कहना है, “अगर हम कम काम करते हैं, तो नौकरी की संभावना बढ़ती है, जो लोगों को बेरोजगारी से मुक्ति दिलाता है और हमें हल्का रखता है, हम अधिक दबाव में काम करने को मज़बूर नहीं होते.”

कोटे का तर्क है, "इससे हम अधिक संतुलित तरीके से रहते हैं, पका पकाया भोजन ना खरीद कर खुद खाना पकाते हैं क्योंकि हमें खाना पकाने का वक्त मिल जाता है और हम अच्छे माता-पिता भी बनते हैं."

‘एक्टिविटि इल्यूज़न’ के लेखक ईआन प्राइस कहते हैं, "काम काज का अब भी हमारा तरीका फैक्ट्री में काम पर आधारित है, हम उसी मानसिकता से ग्रसित हैं."

लैंसेस्टर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर कैरी कूपर कहते हैं, "ये एक किस्म का पागलपन और पुराना ढर्रा है कि लोग सुबह आठ बजे आएं और 7 बजे शाम को दफ्तर छोड़ दे, ये सब हमारे डीएनए में बस गया है. नई तकनीक तो इस तरह से विकसित हुई है कि लोग घर बैठे काम कर सके, लंबे समय तक काम करने से सेहत पर असर पड़ता है और तनाव भी पैदा करता है."

हालांकि, इसके विकल्प के तौर पर कूपर इस बात का समर्थन नहीं करते हैं कि काम के दिन घटा दिए जाएं.

उनका तर्क है कि लोगों को खुलकर और आरामदायक तरीके काम करने की आज़ादी होनी चाहिए.

International News inextlive from World News Desk