प्रश्न:आपने कहा कि हमारे भीतर वास्तव में कोई भी नहीं है. बस एक शून्य है, एक रिक्तता है परंतु फिर आप इसे प्राय: आत्मा अथवा केंद्र कहकर क्यों पुकारते हैं?
आत्मा या अनात्मा, ना-कुछ या सबकुछ, विरोधाभासी लगते हैं, पर दोनों का एक ही अर्थ है। पूर्ण और शून्य का एक ही अर्थ है। शब्दकोश में वे विपरीत हैं, पर जीवन में नहींं। इसे इस तरह समझो: यदि मैं कहूं कि मैं सबको प्रेम करता हूं या मैं कहूं कि मैं किसी को भी प्रेम नहीं करता तो इसका एक ही अर्थ होगा। यदि मैं किसी एक व्यक्ति को ही प्रेम करूं, तभी अंतर पड़ेगा। यदि मैं सबको प्रेम करूं, तो वह किसी को भी प्रेम न करने जैसा ही है फिर कोई अंतर नहीं है। अंतर सदा मात्रा में होता है, सापेक्ष होता है। और ये दोनों ही दो अतियां हैं, उनमें कोई मात्रा नहीं है। पूर्ण और शून्य की कोई मात्रा नहीं होती इसलिए तुम पूर्ण को शून्य और शून्य को पूर्ण कह सकते हो।
कुछ बुद्ध पुरुषों ने अंतर-आकाश को शून्य कहा है, अनात्मा कहा है; और कुछ ने उसे ब्रह्म कहा है, आत्मा कहा है। यह उसे अभिव्यक्त करने के दो ढंग हैं। एक विधायक ढंग है, दूसरा नकारात्मक ढंग है। या तो तुम्हें सब सम्मिलित कर लेना है या सब हटा देना है; तुम किसी सापेक्ष रूप में उसे अभिव्यक्त नहीं कर सकते। एक आत्यंतिक अभिव्यक्ति चाहिए। दोनों विपरीत ध्रुव आत्यंतिक हैं। लेकिन ऐसे भी प्रज्ञा पुरुष हुए हैं जो मौन ही रह गए हैं। उन्होंने कुछ भी नहीं कहा, क्योंकि तुम जो भी कहो-चाहे आत्मा कहो, चाहे अनात्मा कहो जिस क्षण तुम उसे एक नाम देते हो, एक शब्द देते हो, उस समय तुम गलती कर रहे हो क्योंकि उसमें तो दोनों ही समाहित हैं।
उदाहरण के लिए यदि तुम कहो कि 'परमात्मा जीवंत है’ या 'परमात्मा जीवन है’ तो उसका कोई अर्थ नहीं होगा, क्योंकि फिर मृत्यु कौन है? यदि मृत्यु किसी और की है और जीवन परमात्मा का है, तो फिर तो दो परमात्मा हो गए। परमात्मा सृष्टा और संहारक दोनों ही होना चाहिए। भारत में हमने अस्तित्व के गहनतम रहस्य में प्रवेश करने का प्रयास किया है, वह है अद्वैत। भलाई और बुराई, जीवन और मृत्यु, विधायक और निषेधात्मक कहीं न कहीं मिलते हैं और वह मिलन-स्थल ही अस्तित्व है, अद्वैत है। तुम उस मिलन-स्थल को क्या कहोगे? या तो तुम विधायक भाषा प्रयोग करोगे या निषेधात्मक क्योंकि और कोई भाषा हमारे पास है ही नहीं। यदि तुम विधायक भाषा प्रयोग करो तो उसे आत्मा कहोगे, परमात्मा कहोगे, ब्रह्म कहोगे। यदि निषेधात्मक भाषा उपयोग करते हो तो निर्वाण शून्य, अनात्मा कहोगे। दोनों में से कुछ भी कह सकते हो, दोनों का एक ही अर्थ है। वह दोनों है और तुम्हारी आत्मा भी दोनों है। कभी मैं उसे आत्मा कह देता हूं, कभी शून्य।
यदि विधायक तुम्हें अच्छा लगता है, तो आत्मा कहो। यदि नकार अच्छा लगता है, तो अनात्मा कह लो। जो भी तुम्हें अच्छा लगे, जो भी तुम्हें परिपक्वता दे, तुम्हारा विकास करे उसी नाम से पुकारो। दो तरह के लोग हैं: एक वे जो निषेधात्मक के साथ किसी तरह की निकटता अनुभव नहीं कर सकते और दूसरे वे जो विधायक के साथ कोई लगाव नहीं रख सकते। यदि तुम्हें मौन, शून्य के साथ निकटता अनुभव होती है तो आत्मा को शून्य कह लो; और अगर उससे सामीप्य नहीं बनता, भय लगता है, तो शून्य को आत्मा कह लो। यदि तुम्हें रिक्तता से, एकांत से, शून्य से भय लगता है तो फिर तुम विधायक विधियों का उपयोग करो। लेकिन यदि तुम तैयार हो और तुममें साहस है आधारहीन होने का, शून्य में अकेले प्रवेश करने का, बिल्कुल मिट जाने का, तो निषेधात्मक विधियां तुम्हारे लिए बहुत सहयोगी होंगी।
ओशो
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