प्रश्न: गुरु-कृपा कब मिलेगी?
यही सभी संन्यासियों की आकांक्षा है। यह प्रश्न सभी का प्रश्न है। जो सभी मुझसे किसी गहरे नाते में जुड़े हैं, उन सभी की उसी क्षण के लिए प्रतीक्षा है। वह क्षण अभी भी आ सकता है--आज भी--इसी क्षण भी। मैं तो तैयार हूं, तुम्हीं झेलने को तैयार नहीं होते। तुम्हारी ही तैयारी धीरे-धीरे हो जाए, इसकी चेष्टा कर रहा हूं। तुम अपने कारागृह से बाहर आ जाओ; या-कम से कम द्वार-दरवाजे खोलो कि मैं तुम्हारे कारागृह मे भीतर आ सकूं। कारागृह मे तुम हो-द्वार दरवाजे बंद किए हैं; और मजा ऐसा है कि कोई और पहरा भी नहीं दे रहा है। तुम ही द्वार-दरवाजे बंद किए, ताले लगाए भीतर बैठे हो- घबड़ाए, डरे, अस्तित्व से डरे; सुरक्षा मालूम होती है भीतर। बाहर असुरक्षा है।
सच है यह बात: बाहर असुरक्षा है, लेकिन असुरक्षा में जीवन है। असुरक्षा के भाव को समग्र रूपेण स्वीकार कर लेना की संन्यास है कि अब हम सुरक्षा करके न जीएंगे। अब परमात्मा जैसा रखेगा, वैसा जाएंगे। अब जैसी उसकी मर्जी। 'जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए।' अब जो करवाएगा--करेंगे; नहीं करवाएगा-नहीं करेंगे। अपने पर भरोसा छूटे, तो यह घटना आज ही हो सकती है। 'निकलेगा रथ किस रोज पार कर मुझको?Ó रथ तो द्वार पर खड़ा है। रथ तो अभी निकलने को तैयार है। 'ले जाओगे कब ज्योति बार कर मुझको?Ó मैं तैयार हूंं रोज-रोज तुम्हें पुकार भी रहा हूं कि सुनो. वैसे ही बहुत देर हो गई है। अब चेतो।
'किस रोज लिए प्रज्ज्वलित बाण आओगे?Ó आ ही गया हूं। द्वार पर दस्तक दे रहा हूं। तुम सुनते नहीं। तुम भीतर 'अपनाÓ शोरगुल मचा रहे हो। तुमने इतने बाजे बजा रखे हैं भीतर कि द्वार पर पड़ी हल्की सी थाप तुम्हें सुनाई भी पड़े तो कैसे। तुमने भीतर इतना बाजार बना रखा है, इतनी भीड़-भीड़ है भीतर तुम्हारे... तुम अकेले नहीं हों तुमने बड़ी दुनिया भीतर बना रखी है। वहां बड़ी कलह है, बड़ा धुआं है, बड़ा संघर्ष, बड़ा युद्ध है। वहां प्रतिपल कलह ही चल रही है। उस कलह के कारण द्वार पर पड़ती थपकी तुम सुन नहीं पाते। तुमने उसे तो न मालूम कितनी पर्तों में बंद कर रखा है! और पर्तें तुम्हारी जबरदस्ती भी तोड़ी जा सकती हैं, लेकिन जबरदस्ती स्वतंत्रता मिल ही नहीं सकती क्योंकि वह तो विरोधाभास है।
स्वतंत्रता तो चुननी पड़ती है, वरण करनी होती है। जबरदस्ती किसी को स्वतंत्र करने का कोई उपाय नहीं और यह तो बाहर की स्वतंत्रता है। भीतर की स्वतंत्रता तो और कठिन बात है। तो मैं द्वार पर खड़ा हूं कि तुम्हारे हृदय को चीर कर निकल जाऊं। मगर जबरदस्ती नहीं की जा सकती। तुम्हें ही धीरे-धीरे अपने अवगुंठन, अपने आवरण त्यागने पड़ेंगे। तुम्हें धीरे-धीरे अपना हृदय मेरे सामने खोलना पड़ेगा। जब तुम डरते हो, तो जहर मालूम होता है। जब तुम स्वीकार कर लेते हो, तो औषधि हो जाती है। उसी दिन यह घटना घट जाएगी। मन में आकांक्षा तो जग रही है, अभीप्सा तो जग रही है कि खोल कर रख दूं।
शायद कुछ रोकता है-कोई भय, कोई पुरानी आदत, कोई संस्कार मगर कितनी देर रोक सकेगा? क्योंकि आकांक्षा भविष्य की है और संस्कार अतीत का। संस्कार मुर्दा है; आकांक्षा जीवंत है। आकांक्षा में आत्मा है, संस्कार तो केवल राह पर पड़ी लकीर है, जिस पर तुम गुजर चुके इसलिए जब भी आकांक्षा में और अतीत में संघर्ष होगा, अतीत हारता है, आकांक्षा नहीं हारती। आकांक्षा के साथ भविष्य है। तो तुम्हारे भीतर आकांक्षा तो उठी है। शुभ आकांक्षा उठी है। इसको सींचो। इसको संभालो। यह अभी छोटा कोमल पौधा है, इसको सहारा दो कि यह बड़ा होता जाए। यह बढ़ेगा। मेरा पूरा साथ तुम्हें है, लेकिन मैं आकर जबरदस्ती तुम्हारी पंखुडिय़ों को नहीं खोलूंगा। न हीं खोल सकता हूं क्योंकि तुमसे मुझे प्रेम है अन्यथा खुद की खुलने की क्षमता सदा के लिए नष्ट हो जाएगी।
माली किसी फूल को खोलता नहीं। पानी देता है; खाद देता है; लेकिन किसी फूल को पकड़ कर खुद खोलता नहीं है। अगर वो ऐसा करेगा तो फूल मुरझा जाएगा। वह मौका देता है- पौधे को ही- कि जब समय पक जाएगा, जब वसंत आएगा, जब फूल के भीतर ही क्षमता आ जाएगी खुलने की, तो फूल अपने से खुलेगा। अपने से खुल जाना ही सहज-योग है। कबीर के सारे वचन उसी सहज-योग की दिशा में इशारे हैं। सहज को समझा, तो कबीर को समझा।
ओशो.
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