प्रश्न: आपका पूना में जब आगमन हुआ, तब यहां कुछ तोते थे; लेकिन एक साल में न जाने यहां कितने प्रकार के पक्षी आ गए हैं। क्या ये आपके कारण आए हैं? क्या यहां आने से इनकी भी कोई आध्यात्मिक तरक्की संभव है?
जीवन एक गहन प्रयोजन है और वह प्रयोजन मनुष्य तक ही सीमित नहीं है। सीमित हो भी नहीं सकता। प्रयोजन है तो पूरे अस्तित्व में है या कहीं भी नहीं है। मनुष्य अलग-थलग नहीं है; मनुष्य एक है। अगर पत्थर व्यर्थ ही हैं तो मनुष्य भी व्यर्थ है और अगर मनुष्य के जीवन में कोई सार्थकता है, तो पत्थरों के जीवन में भी सार्थकता होनी ही चाहिए। परमात्मा है तो उसका हस्ताक्षर सभी चीजों पर है। आदमी विशिष्ट नहीं है; सारी प्रकृति विशिष्ट है। तुम ही नहीं कोई विकास कर रहे हो; सारा अस्तित्व विकासमान है। पौधे, पक्षी, पत्थर सभी ऊंचाइयों के शिखर को छूने के लिए यात्रा पर चल रहे हैं। धीमी होगी किसी की गति, तेज होगी किसी की गति, कोई बेहोश पड़ा होगा, कोई होश से चल रहा होगा; लेकिन मंजिल है। मंजिल का नाम ही परमात्मा है और जब तक मंजिल न मिल जाए, तब तक एक बेचैनी बनी ही रहेगी। वह बेचैनी मनुष्य के भीतर ही है, ऐसा नहीं; वह सारे अस्तित्व में है।
कठिनाई होती है हमें यह सोचकर, क्योंकि मनुष्य का अंहकार ऐसा मान लेता है कि परमात्मा सत्य, प्रेम, बस हमारी बपौती है। तो हमें अड़चन होती है। दु:ख से कौन नहीं बचना चाहता है? तुमने पशु-पक्षियों को दु:ख से बचने के लिए भागते देखा है, क्या उससे तुम्हें यह ख्याल नहीं आता कि जो दु:ख से बचना चाहते हैं वे सुख भी चाहते होंगे। जो सुख चाहता है, क्या तुम्हें ख्याल नहीं आता कि कभी अनजाने-जाने उसके हृदय में भी वह आकांक्षा जगती होगी, जो आनंद की है? पशु भी जानते हैं सुख, पशु भी जानते हैं दु:ख, और उस पीड़ा को भी जानते हैं जो सुख-दु:ख में उलझकर मिलती है। कभी उनकी चेतना में भी वह क्षण आता है, जब दोनों के पार हो जाने का भाव उठता होगा।
सारा जगत पौधे भी तुम्हें ख्याल में न आते हों, लेकिन प्राण वहां संवादित है, प्राण वहां पुलकित है, वहां भी धड़कन है और वहां भी भाव की दशाएं हैं। पौधों का एक अज्ञात जीवन है, जिसका हमें कोई पता नहीं और अगर पौधों का अज्ञात जीवन है, तो पक्षियों का तो कहना ही क्या! पक्षी तो बहुत विकसित अवस्था है। वे जो पक्षी तुम्हें गीत गाते दिखाई पड़ते हैं, वे भी आकस्मिक नहीं आ गए हैं। तुम भी आकस्मिक नहीं आ गए हो। आकस्मिक कुछ होता ही नहीं। इस संसार में आकस्मिक शब्द झूठा है। यहां सभी चीजें तारतम्य में बंधी हैं। यहां जो भी घटता है, उसके आगे-पीछे बड़े सूत्रों का जाल है। तुम अगर यहां हो तो ऐसे ही नहीं, जन्मों-जन्मों का हाथ होगा इसलिए जो पक्षी वृक्ष पर बैठकर गीत गा रहा है, उसे पता न हो कि इसी वृक्ष को उसने क्यों चुन लिया है? आज की सुबह ही गीत गाने को क्यों चुन लिया है?
जगत में अकारण कुछ भी नहीं है; एक विराट प्रयोजन प्रवाहित है। पत्थर से भी उस प्रयोजन का संबंध है, पहाड़ से भी उस प्रयोजन का संबंध है, पक्षियों से भी, पौधों से भी। एक विराट प्रयोजन सारे जगत को एक बड़ी तीर्थयात्रा पर ले जा रहा है। सब खोज रहे हैं। अहर्निश खोज चल रही है। उस खोज में कोई थोड़े आगे हैं, कोई थोड़े पीछे हैं। इसलिए तो अहिंसा का शास्त्र जन्मा। वह धर्म का शिखर था। जब धर्म की अनुभूति बड़ी प्रगाढ़ हो गई, तब अहिंसा का शास्त्र जन्मा; इस बात की प्रतीति जन्मी कि हम ही नहीं खोज रहे हैं सत्य को, सभी खोज रहे हैं और सत्य की यात्रा से किसी को भी वंचित करना हिंसा है और सत्य की यात्रा से किसी की भी जीवन-व्यवस्था को खंडित करना महापाप है। जो हमें नहीं दिखाई पड़ते जीवन के सूत्र, वे भी अहर्निश संलग्न हैं। वृक्ष भी अकारण नहीं हैं, पशु भी अकारण नहीं हैं, पक्षी भी अकारण नहीं हैं क्योंकि अकारण अस्तित्व नहीं है। तुम जैसे आए हो, वैसे ही सभी आए हैं। यह सिर्फ मनुष्य का अहंकार है, जो सोचता है, हम परमात्मा को खोज रहे हैं, कि हम धर्म को खोज रहे हैं। सभी की खोज वही है। और निश्चित ही जिसकी खोज है उसकी तरक्की भी है; जिसकी खोज है उसका विकास भी है।
ओशो।
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