इस शोध के अनुसार कुछ जनवादी पार्टियाँ चुनावी जीत हासिल कर सकते हैं, वहीं मुख्यधारा की पुरानी पार्टियों के बीच ऐसे गठबंधन हो सकते हैं जिनके बारे में पहले किसी ने कल्पना तक न की होगी.
ईआईयू के अनुसार यूरोप में 'लोकतंत्र के संकट' का कारण अमीर लोगों और आम मतदाताओं के बीच बढ़ता अंतर है.
इसके अनुसार, "यूरोपीय राजनीति के दिल में एक बढ़ता हुआ छेद है जिसके बारे में नए विचारों की ज़रूरत है."
चुनावों में कम होती आम लोगों की भागीदारी और राष्ट्रीय दलों की सदस्यता लेने में आई गिरावट को इस संकट का मुख्य लक्षण माना जा रहा है.
साल 2015 में आधुनिक ब्रितानी संसद की स्थापना के 750 साल पूरे हो रहे हैं.
ब्रिटेन में राजनीतिक अस्थिरता
ब्रिटेन में मई में आम चुनाव होने वाले हैं. ईआईयू के अनुसार ब्रिटेन में किसी एक दल को बहुमत मिलने की संभावना नहीं दिख रही है और देश लंबे समय के लिए राजनीतिक अस्थिरता का शिकार हो सकता है.
जनवादी पार्टियों को मिलने वाली सफलता की पहली परीक्षा ग्रीस में होगी. ग्रीस में समय से पहले 25 जनवरी को चुनाव हो रहे हैं क्योंकि दिसंबर में संसद नए राष्ट्रपति का चयन करने में नाकाम रही थी.
एक जनमत सर्वेक्षण के अनुसार अति-वामपंथी जनवादी पार्टी सायरिज़ा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर सकती है.
ईआईयू के अनुसार अगर ऐसा हुआ और यह पार्टी सरकार बनाने में सफल रही तो इससे यूरोपीय संघ को सदमा लग सकता है, जो दूसरी जगहों पर राजनीतिक उथल-पुथल का कारण बन सकता है.
पाँच साल में 90 प्रदर्शन
ईआईयू का मानना है कि डेनमार्क, फिनलैंड, स्पेन, फ्रांस, स्वीडन, जर्मनी और आयरलैंड में भी आने वाले आम चुनावों में अप्रत्याशित परिणाम आ सकते हैं. ईआईयू के अनुसार इन सभी देशों में साझा बात है जनवादी पार्टियों का उभार.
ईआईयू के अनुसार, "यूरोप के सभी क्षेत्रों में व्यवस्था-विरोधी भावनाएं बढ़ी हैं. राजनीतिक अस्थिरता और गंभीर संकट की आशंका बहुत ज़्यादा है."
वामपंथी, दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी जनवादी पार्टियों ने पुरानी मुख्यधारा की पार्टियों और उनके समर्थकों के बीच पैठ बनाई है.
ईआईयू अनुमान के अनुसार पिछले पांच सालों में दुनिया के 90 देशों में बड़े विरोध प्रदर्शन हुए जिनका नेतृत्व युवा, शिक्षित, मध्य वर्ग के लोगों ने की जो अपने राजनीतिक नेताओं के पसंद नहीं करते और पारंपरिक मीडिया के बजाय ट्विटर और सोशल मीडिया को प्राथमिकता देते हैं.
विरोध के कारण
हॉन्गकॉन्ग में लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनकारी
ईआईयू का कहना है कि हाल के वर्षों में यूरोप, मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और लैटिन अमरीका में लोकप्रिय विरोध प्रदर्शनों में जबरदस्त वृद्धि हुई है.
एशिया और उत्तरी अमरीका भी ऐसे प्रदर्शनों से बचे नहीं है, हालांकि यहाँ ऐसे प्रदर्शन बाक़ी क्षेत्रों की तुलना में कम हुए हैं.
अलग-अलग जगहों पर इन प्रदर्शनों के कारण भिन्न-भिन्न रहे हैं. आर्थिक संकट, तानाशाही के ख़िलाफ़ विद्रोह, राजनीतिक प्रभु वर्ग तक अपनी आवाज़ पहुंचाने की कोशिश और तेज़ी से विकसित होती मुक्त बाज़ार से उपजे नए मध्य वर्ग की बढ़ती आकाँक्षाएं विरोध प्रदर्शनों का कारण रही हैं.
इन हालात के मद्देनज़र यह सवाल खड़ा होता है कि क्या सचमुच लोकतंत्र को कोई ख़तरा है या ये इसके स्वस्थ और जीते-जागते होने के प्रमाण हैं?
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