सवा अरब भारतीयों की आसमान छूती ज़रूरतों के लिए देश की ज़मीन काफ़ी नहीं थी, इसलिए कुछ साल पहले  भारतीय कंपनियों ने ज़मीन की तलाश में विदेश का रुख किया था. लेकिन इन कंपनियों का वर्चस्व ऐसा फैला है कि दुनिया भर में चिंता जताई जाने लगी है.

कुछ समय पहले अफ़्रीकी संगठनों के एक गुट ने दिल्ली में अपनी परेशानियाँ सार्वजनिक कीं.

अमरीका स्थित ऑकलैंड इंस्टिट्यूट के अनुसार इथियोपिया, कीनिया, मैडागास्कर, सेनेगल और मोज़ांबिक जैसे अफ्रीकी देशों में 80 भारतीय कंपनियों ने करीब ढाई अरब डॉलर का निवेश किया है और यहाँ उगने वाले अनाज का इस्तेमाल भारत में बढ़ती मांग को शांत करने के लिए किया जाएगा.

अफ़्रीका के बाहर दक्षिणी अमरीका, दक्षिण पूर्व एशिया में भारतीय कंपनियाँ ज़मीन खरीद रही हैं. भारत के अलावा चीन, सऊदी अरब, कुवैत, दक्षिणी कोरिया और यूरोप की कंपनियाँ भी इस खरीद में शामिल हैं.

जानकारों के अनुसार साल 2008 में जब दुनिया भर में खाद्यान्न संकट फैला तो सरकारों का सामना वैश्विक खाद्य सुरक्षा की चुनौतियौं से हुआ. फ़ैसला हुआ कि अगर देश के भीतर ज़मीन की कमी है तो बाहर जाकर ज़मीन का इस्तेमाल किया जाए.

कुछ संगठनों ने इसे ‘लैंड ग्रैब’ या ‘ज़मीन हड़पना’ नाम दिया. जब लैंड ग्रैब के आरोप लगते हैं तो भारतीय कंपनी करतुरी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है.

बैंगलोर की इस कंपनी पर भी अफ़्रीका में कौड़ियों के दाम ज़मीन हथियाने के आरोप लगे हैं. और शायद बढ़ते दबाव का ही नतीजा है कि इथियोपिया की सरकार ने चिंता जताई है कि कंपनी ने ज़मीन का विकास ठीक से नहीं किया है.

सरकार पर दबाव

क्या भारतीय कंपनियाँ अफ़्रीका में ज़मीन हड़प रही हैं?

इथियोपिया में करतुरी के पास लीज़ पर 1,10,000 हेक्टर ज़मीन है

इथियोपिया की राजधानी आदिस अबाबा में कृषि राज्यमंत्री वोंडिराड मैंडेफ़्रो ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि हालाँकि कंपनी ज़मीन के विकास के लिए पूरी कोशिश कर रही है, करतूरी अपने लक्ष्य से दूर है.

उधर करतुरी का कहना है कि उसने इथियोपिया जैसे पिछड़े देश में भारी निवेश कर नौकरियाँ पैदा की हैं और देश के आर्थिक विकास में योगदान किया है.

इथियोपिया में करतुरी के पास लीज़ पर 1,10,000 हेक्टेयर ज़मीन है.

दरअसल इथियोपिया की अर्थव्यवस्था का 42 प्रतिशत कृषि-आधारित है. यहाँ ज़मीन तो है लेकिन आर्थिक और तकनीकी निवेश की भारी किल्लत है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कृषि के लिए उपलब्ध 7.4 करोड़ हेक्टेयर में से 1.8 करोड़ हेक्टेयर का ही अभी तक इस्तेमाल हो पाया है.

लेकिन सरकार पर भारी दबाव है कि वो कंपनियों को ज़मीन देने में पारदर्शिता लाए और पुनर्वास जैसी समस्याओं से प्रभावशाली ढंग से निपटे.

सरकार के अनुसार उसकी मंशा खेती में विदेशी निवेश आकर्षित करने की है ताकि देश में बेहतर तकनीक और रोज़गार आए, लेकिन अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ ब्राज़ील, भारत और सऊदी अरब जैसे देशों की कंपनियों पर सस्ते दामों में इथियोपिया की हज़ारों एकड़ ज़मीन हड़पने का आरोप लगाती हैं.

कुछ हफ़्ते पहले दिल्ली में बीबीसी से बातचीत में इथियोपिया के उद्योग मंत्री टाडेसे हाले ने मीडिया में लग रहे ‘ज़मीन हड़पने’ के आरोपों को सच्चाई से दूर बताया था.

फ़ार्म की सच्चाई

क्या भारतीय कंपनियाँ अफ़्रीका में ज़मीन हड़प रही हैं?

समस्या को समझने के लिए हमने राजधानी आदिस अबाबा से दो घंटे की दूरी पर वलीसो नाम के कस्बे का रुख किया जहाँ करतुरी का गुलाब का फ़ार्म है. यहाँ पैदा हुए गुलाब मध्य-पूर्व के देशों, यूरोप और रूस भेजे जाते हैं.

इथियोपिया में करतुरी के पास चार फ़ार्म हैं. गुलाब के अलावा इथियोपिया में कंपनी मक्का और चावल की भी खेती करती है.

वोलीसो जाने वाली जीमा रोड के दोनो ओर हज़ारों एकड़ों तक फैली खाली ज़मीन है. शायद यहाँ पहले जंगल हुए करते थे जिन्हें साफ़ कर दिया गया था क्योंकि हमें कहीं लकड़ियों के बड़े ढेर दिखाई दिए तो कहीं लकड़ियों के बने घर.

वोलीसो के एक छोर पर सड़क के दोनो ओर एकड़ों तक फैले टेंटनुमा खोलियाँ दिखाई देती हैं. करतुरी को खेती के लिए वलीसो में करीब डेढ़ सौ एकड़ ज़मीन दी गई थी लेकिन अभी तक सिर्फ़ 30 एकड़ का ही इस्तेमाल हुआ है.

"यहाँ मिलने वाले पैसे मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं. पढ़ाई के बाद मैं यहाँ काम करती हैं. जो पैसे बचते हैं, उन्हें अपने परिवार पर खर्च करती हूँ"

-मेकडस डेमेना, कर्मचारी

करतुरी फ़ार्म में एक बड़े गोदामनुमा कमरे में अंदाज़न 50 महिलाएँ गुलाबों को काटने-छांटने, उन्हें सही आकार देकर गुच्छे तैयार करने का काम कर रही थीं. चारों ओर से गुलाब की खुशबू आ रही थी. लाल, पीले गुलाब हर जगह बिखरे थे.

यहाँ मेरी मुलाकात मेकडस डेमेना से हुई. सफ़ेद कार्डिगन पहने हुए मेकडस ने बहुत झिझकते हुए बताया कि वो इस फ़ैक्ट्री में पिछले 14 महीनों से काम कर रही हैं. वो यहाँ फूलों का गुच्छा बनाने का काम करती हैं. उनकी ज़िंदगी इस फ़ैक्ट्री पर निर्भर है.

उन्होंने कहा, “यहाँ मिलने वाले पैसे मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं. पढ़ाई के बाद मैं यहाँ काम करती हैं. जो पैसे बचते हैं, उन्हें अपने परिवार पर खर्च करती हूँ.”

मेकडस की तरह फांतु की ज़िंदगी भी इसी फ़ैक्ट्री से जुड़ी है. फ़ांतु का काम है गुलाबों की गुणवत्ता का ख़्याल रखना. वो कहती हैं कि अगर वो यहाँ काम नहीं करतीं तो शायद वो अपने गाँव में अपना समय बरबाद कर रही होतीं.

नाराज़गी

क्या भारतीय कंपनियाँ अफ़्रीका में ज़मीन हड़प रही हैं?

लेकिन वापस आदिस अबाबा आते वक्त करतुरी फ़ार्म से थोड़ी दूर हमारी मुलाकात सड़क के किनारे अपनी झोपड़ी में रहने वाले आयांसा वक्तोला से हुई.

सफ़ेद जैकेट और नीली शर्ट पहने आयांसा करतुरी जैसी कंपनियों से नाराज़ हैं. वो कहते हैं कि करतुरी जैसी कंपनियाँ फ़ायदेमंद नहीं हैं.

उन्होंने कहा, “ये कंपनियाँ अपने कर्मचारियों को बहुत कम तनख्वाह देती हैं जिससे उनका खाने का खर्चा तक नहीं निकलता.”

ये चिंता आयांसा तक सीमित नहीं हैं.

इथियोपिया की सरकार पर आरोप लगे हैं कि उसने विस्थापित लोगों के पुनर्वास के लिए साफ़गोई से काम नहीं किया है और सरकार कंपनियों के दबाव में काम कर रही है.

कुछ संगठनों का कहना है कि अफ़्रीकी देशों में कमज़ोर नौकरशाही के कारण आम लोग पिस रहे हैं इसलिए इन कंपनियों को ऐसे देशों में निवेश नहीं करना चाहिए.

लेकिन भारतीय अधिकारियों के अनुसार ऐसा करना इथियोपिया के आंतरिक मामलों में दखलअंदाज़ी होगी.

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