शुक्रवार को दिल्ली में भारत निर्वाचन आयोग के सामने इसकी सुनवाई हुई, जिसके बाद अशोक चव्हाण को अपना पक्ष रखने के लिए सोमवार तक का वक़्त दिया गया. अगले शुक्रवार को फिर इस मामले की सुनवाई होगी.
मेरे लिए 2009 में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दिए गए अशोक चव्हाण के चुनावी ब्योरे को जानना काफ़ी दिलचस्प रहा था.
कुछ साल पहले मुझे जब यह ब्योरे मिले थे, तो मुझे वो प्रेरणादायक लगे थे, आज भी लगते हैं.
उनके अलावा आख़िर कौन है जो सलमान ख़ान की रैली को महज़ 4,440 रुपए में आयोजित कर सके?
उन्होंने सलमान ख़ान की ही एक अन्य सभा उससे भी कम महज़ 4,300 रुपए में की थी.
दोनों मामले में 1500 रुपए, 'लाउडस्पीकर' या जनसंचार माध्यम पर ख़र्च किए गए थे. इसके अलावा 'सभा स्थल का किराया' 500रुपए बताया गया था.
ख़बर या विज्ञापन
मैंने अपने ज़हन में ये सारी बातें बिठा ली थीं. मैंने तय कर लिया कि मैं अपना रिटायरमेंट का समय नांदेड़ ज़िले की भोकर विधानसभा में गुजारूंगा, जहां से वह विधायक हैं. आख़िरकार इससे सस्ती जगह धरती पर दूसरी नहीं हो सकती.
मीडिया में दिए गए विज्ञापन के मामले में उन्होंने काफ़ी किफ़ायत बरती. चव्हाण ने कुल छह अख़बारी विज्ञापन छपवाए और वो भी महज़ 5,379 रुपए में.
दिक़्क़त यह है कि देश के कई बड़े अख़बारों के तक़रीबन 150 पन्नों या उससे भी ज़्यादा में उनके बारे में ख़बर छपी. कई बार तो पूरे पन्ने की. इनमें से ज़्यादातर ख़बरें रंगीन पन्नों पर छपी थीं.
ऐसे किसी भी पन्ने पर कोई विज्ञापन नहीं था. इनमें से किसी में भी कभी भी उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी डॉ. माधव किनहाल्कर के नाम का उल्लेख नहीं किया गया था.
लेकिन जिन भी अख़बारों में ये ख़बरें छपी थीं, उन्होंने इन्हें विज्ञापन नहीं 'ख़बर' बताया. न ही यह बताया कि इसके लिए उन्हें कोई पैसा मिला था. इन ख़बरों में चव्हाण के महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में 11 महीने के कार्यकाल के दौरान अर्जित उपलब्धियों का बखान था.
'ख़बर' के रूप
'पेड न्यूज़' (पैसे लेकर ख़बर छापना) के घोटाले का मूल यही था. अख़बारों के पन्ने दर पन्ने में अशोक चव्हाण की प्रशस्ति गाई गईं थी और इसे ख़बर बताया गया. और इस कारण इनके ख़र्च को किसी के भी खाते में नहीं दिखाया गया. अगर इन्हें विज्ञापन बताया जाता, तो इन पर आया ख़र्च करोड़ों में होता और चव्हाण का चुनाव ख़र्च चुनाव आयोग की निर्धारित सीमा से कई गुना ज़्यादा हो जाता.
सच है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला बहुत सीधा-सादा लगता है. जाहिर तौर पर आप सोचते होंगे कि निर्वाचन आयोग को किसी भी प्रत्याशी को ग़लत चुनावी ब्योरा देने पर अयोग्य घोषित करने का अधिकार है. आख़िर निर्वाचन आयोग किस काम के लिए है, अगर वह चुनाव की शुचिता बरक़रार न रख सके?
लेकिन चव्हाण ऐसा नहीं सोचते. वह इस बात को लेकर अदालत चले गए कि किसी प्रत्याशी को अयोग्य घोषित करना निर्वाचन आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर है. चव्हाण के अनुसार निर्वाचन आयोग का काम बस इतना है कि वह यह सुनिश्चित करे कि प्रत्याशियों ने अपना चुनावी ब्योरा समय पर जमा कर दिया है.
उनके अनुसार भारत निर्वाचन आयोग का यह काम नहीं कि वो इस बात की जांच करे कि दिए गए ब्योरे में कोई धोखाधड़ी की गई है या नहीं.
हालांकि जिस दिल्ली हाईकोर्ट में चव्हाण ने मामला दायर किया, उसने उनके तर्कों को ठुकरा दिया.
भारत निर्वाचन आयोग के हवाले
यह मामला फिर से भारत निर्वाचन आयोग के पास है. सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचन आयोग को एक निश्चित समय सीमा के अंदर इस मामले का फ़ैसला करने के लिए कहा है.
सुप्रीम कोर्ट ने समय सीमा तय करके सही किया है. इससे अंतहीन दलीलों पर लगाम लगेगी. 'पेड न्यूज़' का मामला चुनाव आयोग में तक़रीबन तीन साल खिंचा. उसके बाद एक साल से अधिक समय से यह अदालत में है. अब अधिकतम 45 दिनों में इस पर फ़ैसला करना है.
असल में निर्वाचन आयोग चाहे, तो केस को एक हफ़्ते में निपटा सकता है. वह एक साल तक दोनों पक्षों की दलीलें सुन चुका है. अगर वह चव्हाण को अयोग्य घोषित करने का फ़ैसला करता है (शायद ही उसके पास कोई दूसरा विकल्प हो) तो भी फ़ैसला लेने का वक़्त मायने रखता है.
निर्वाचन आयोग उत्तर प्रदेश के तात्कालीन विधायक उमेश यादव को पहले ही अयोग्य घोषित कर चुका है. उमेश ने अपने चुनाव ख़र्च में विज्ञापन पर ख़र्च किए गए कुछ हज़ार रुपए का ब्योरा नहीं दिया था.
तो क्या जिसका विज्ञापन कई-कई पन्नों में छपा हो, उसके लिए क़ानून अलग होगा? उमेश यादव और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा भी चव्हाण की तरह अदालत गए थे. उनका हश्र वही हुआ जो चव्हाण का हुआ.
अब क्या होगा?
लेकिन यह मामला अब थोड़ा जटिल हो गया है. 2014 के लोकसभा चुनावों में अशोक चव्हाण जीत चुके हैं, जबकि 2009 में महाराष्ट्र की भोकर विधानसभा से मिली उनकी जीत सवालों के घेरे में है.
ऐसे में सवाल यह है कि अगर वह 2009 के विधानसभा चुनावों के लिए अयोग्य घोषित कर दिए जाते हैं तो क्या सांसद के पद से इस्तीफ़ा देंगे?
वैसे, नैतिक रूप से किसी भी स्तर पर अयोग्य घोषित हो जाने से इस प्रहसन को समाप्त हो जाना चाहिए लेकिन 'नैतिकता' इस पूरी प्रक्रिया में अब तक ग़ायब ही रही है.
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में ऐतिहासिक महत्व वाला फ़ैसला दिया है. अदालत के इस ऐतिहासिक फ़ैसले का लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया के लिए बड़ा अर्थ है.
मगर इस फ़ैसले से मिला सबक़ केवल अशोक चव्हाण के लिए नहीं है. अगर चव्हाण को सज़ा मिलती है, तो उस मीडिया का क्या जिन्होंने 'पेड न्यूज़' को संभव बनाया?
अदालत के फ़ैसले में राजनीतिक वर्ग और पार्टियों के लिए एक सबक़ है जो चुनावों में धनबल और बाहुबल का जमकर इस्तेमाल करती हैं.
राजनेता और पार्टियां मतदाताओं, प्रशासनिक तंत्र और यहा तक कि ख़ुद निर्वाचन आयोग पर पैसे ख़र्च करती हैं.
मगर सबसे ज़्यादा पैसा ख़र्च किया जाता है मीडिया पर, जो अपनी आत्मा भी उतनी आसानी से बेच देती है जितनी आसानी से वह विज्ञापनों के लिए अख़बार के पन्नों का सौदा करती है.
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