इंतकाल 22 जनवरी 1666 को हुआ
लेखक व पत्रकार अफसर अहमद की किताब 'ताज महल या ममी महल के मुताबिक आगरा किले में कैद शाहजहां इंतकाल 22 जनवरी 1666 को हुआ था. इंतकाल के बाद उन्हें दफन करने की तैयारी आनन फानन में होने लगी. इस दौरान रस्मों रिवाजों को निभाते हुए शाहजहां की बेटी जहांआरा बेगम के आदेश के खान कलादार और ख्वाजा पूल को गुसलखाना में बुलाया. जहां आरा बेगम की इच्छा के मुताबिक यह दोनों बुजुर्ग लाश को करीब के कमरे में ले गए और उन्हें नहलाया और कफन लपेट दिया. इसके बाद उनके शरीर में चंदन आदि लगाकर शव को संदूक में बंद किया. इस दौरान किले के दरवाजे खिड़कियां सब खोल दिए गए. आखिरी रस्म लिए सय्यद मोहम्मद कनूजी और काजी कुरबान अकबराबाद को बुलाया गया. इसके साथ ही बुर्ज का नसीब दरवाजे को खोलकर लाश को उसी रास्ते से बाहर निकाला गया.
आखिर दफनाएं तो कहां दफनाएं
इधर औरंगजेब इस विचार में डूबे रहे कि शाहजहां को आखिर कहां दफनाया जाए. उन बाप बेटों के संबंध तो जग जाहिर थे. औरंगजेब आनन फानन दफनाने के मूड में थे, लेकिन समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें और उन्हें आखिर दफनाएं तो कहां दफनाएं. इस समय सबसे खास बात तो यह थी कि औरंगजेब को अपने पिता की एक वसीयत मिली थी. उस वसीयत तो यह था कि उन्हें ताज के ठीक पीछे मेहताब बाग में दफन किया जाए. वह इस उलझन में पड़ गया कि अगर वह ऐसा करता तो उसे ताज के पीछे एक और बड़ी इमारत बनानी पड़ेगी. उसमें भी इस बात पर ध्यान देना होगा कि शाही रिवाज के मुताबिक उसके वालिद का मकबरा उसकी मां से कन न रहे. जब कि औरंगजेब अब और कोई ईमारत नहीं बनवाना चाहता था. किताब के मुताबिक उसके पीछे दो कारण थे कि एक तो एक लगातार लड़ाई से शाही खजाना खाली हो गया था. इसके अलावा दूसरा मकबरे बनाने को वह फिजूल खर्ची मानता था.
औरंगजेब इमारत बनवाने से बच गया
अब औरंगजेब के सामने एक मुश्किल क्षण था और वह धर्म संकट में था. उसे यह लग रहा था कि अगर पिता की इच्छा नहीं पूरी की तो लोग उसे क्या कहेंगे. ऐसे में उसने एक तरीका निकाला और शाही उलेमाओं से सलाह मांगी. उसने पूछा कि क्या अगर बाप ऐसी कोई वसीयत करे जो इस्लाम की रोशनी में सही न हो तो क्या उसे मानना चाहिए. उलेमाओं ने कहा कि अगर ऐसा है तो उसे माना जाना सही नहीं है. बस यहीं से औरंगजेब इमारत बनवाने से बच गया. इसके साथ ही औरंगजेब ने यह भी बात रखी कि उनके पिता मां को बेपनाह मुहब्बत करते थे. ऐसे में उन्हें मां के बराबर ही ताज में दफन किया जाए. जिससे पिता को बहुत अच्छा लगेगा. बस फिर क्या था, जनाजे को नदी के किनारे लाया और वहां से ताज महल के अंदर मुमताज की मजार के करीब रखा गया. इसके बाद नमाज-ए-जनाजा पढ़ा गया और लाश को गुंबद के अंदर दफन कर दिया गया.
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