इस पर लिखा है, 'विश्वविख्यात आदर्श ग्राम धरहरा में आपका हार्दिक स्वागत है.' यह गांव विश्वविख्यात है या नहीं यह तो तय नहीं है, लेकिन इतना ज़रूर है कि यह पिछले तीन-चार साल से चर्चा में है.
ऐसा हुआ है धरहरा की एक खास परंपरा के कारण. इस गांव में बेटियों के जन्म पर कम-से-कम दस पेड़ लगाने की परंपरा है. यह परंपरा कब शुरू हुई इसे लेकर भी कई मत हैं.
दहेज का जुगाड़
धरहरा गांव बिहार के प्रमुख शहर भागलपुर से क़रीब 25 किलोमीटर दूर है. स्वास्थ्य केंद्र के रिकॉर्ड से पता चला कि गांव में जिस अंतिम बच्ची का जन्म हुआ है, उसके माता-पिता कंचन देवी और बहादुर सिंह हैं.
"हमारे पूर्वजों के समय आस-पास के गांवों में बेटियों के जन्म के समय ही उन्हें अक्सर मार दिया जाता था. इसकी एक बड़ी वजह दहेज का ख़र्च था."
-शंकर दयाल सिंह, निवासी, धरहरा
इस दंपति ने बताया कि अपनी चार महीने की बेटी स्वाति के नाम पर उन्होंने एक पेड़ आंगन में लगाया है. उन्होंने बताया कि वे अपने बड़ी बेटी के नाम पर पूरे 10 पेड़ लगा चुके हैं.
गांव के निवासी शंकर दयाल सिंह कहते हैं, ''हमारे पूर्वजों के समय आस-पास के गांवों में बेटियों के जन्म के समय ही उन्हें अक्सर मार दिया जाता था. इसकी एक बड़ी वजह दहेज का खर्च था.''
शंकर दयाल के मुताबिक़, ''ऐसे में उनके गांव के पूर्वजों ने यह रास्ता निकाला कि बेटी का स्वागत तो किया जाएगा, लेकिन उसके लालन-पालन, शिक्षा और दहेज का खर्च जुटाने के लिए उनके जन्म के समय फलदार पेड़ लगाए जाएंगे.''
पर्यावरण संरक्षण
एक अनाथ बच्ची को अपनाने वाली नीलम और उनका परिवार
साल 2010 में पहली बार एक स्थानीय अख़बार के माध्यम से इस परंपरा को बाहर के लोगों ने जाना.
इसके बाद बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस गांव की परंपरा की प्रशंसा की और इसे पूरे प्रदेश में अपनाने की अपील की. तब से यह गांव चर्चा में आ गया.
साल 2010 से 2013 के बीच बतौर मुख्यमंत्री नीतीश हर साल पर्यावरण दिवस के आसपास यहां आकर
इस गांव के एक किसान राकेश रमण कहते हैं, ''पर्यावरण संरक्षण, भ्रूण हत्या रोकथाम जैसी बातें हमने सुनी थीं, लेकिन हमारा कम ख़र्चीला तरीका इस दिशा में इतना प्रेरणादायी भी है, इसका भान हमें नहीं था.''
गांव में 'आशा' के रूप में काम करने वाली नीलम सिंह बताती हैं कि इस परंपरा ने ही उन्हें एक लावारिस बच्ची को अपनाने का हौसला दिया. वे कहती हैं कि धरहरा के लिए बेटी धरोहर है.
भूमिहीनों का दर्द
लेकिन भूमिहीनों का अलग ही दर्द है. मज़दूर वचनदेव दास कहते हैं, ''मेरे पास रहने के अलावा ज़मीन नहीं है. मैंने अपनी दोनों बेटियों के जन्म के बाद गांव की ठाकुरबाड़ी में पेड़ लगाकर गांव की परंपरा निभाई.''
वचनदेव जैसे लोग परंपरा तो निभा लेते हैं, लेकिन सार्वजनिक स्थान में पेड़ लगाने के कारण इन पेड़ों से उन्हें बेटी के लालन-पालन में कोई मदद नहीं मिलती.
राजकुमार पासवान बताते हैं कि बगीचे लायक ज़मीन नहीं रहने के कारण उन्होंने घर के आंगन में ही पेड़ लगाकर इस परंपरा को निभाया.
चर्चा में आने के बाद प्रशासन ने इस गांव को एक आदर्श गांव घोषित किया है. लेकिन गांव वालों की आम शिकायत है कि सड़क बनने और शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली में मामूली सुधार के अलावा गांव को कुछ ज्यादा अब तक नहीं मिला है.
अधूरे वायदे
"आदर्श गांव होने के बावजूद सरकारी स्वास्थ्य केंद्र पर रात में आकस्मिक सेवा उपलब्ध नहीं थीं, इससे रानी की मौत हो गई."
-मंतो देवी, निवासी धरहरा
उनके मुताबिक़ अस्पताल, पानी की टंकी का निर्माण और गांव को निर्मल ग्राम बनाने जैसी घोषणाओं को पूरा करने की दिशा में अब तक कोई पहल नहीं हुई है.
पिछले साल नीतीश कुमार ने रानी कुमारी नाम की बच्ची के नाम पर पौधा लगाया था. रानी की इस साल डायरिया से मौत हो गई. रानी की दादी मंतो देवी आरोप लगाती हैं कि आदर्श गांव होने के बावजूद सरकारी स्वास्थ्य केंद्र पर रात में आकस्मिक सेवा उपलब्ध नहीं थीं, इसी से रानी की मौत हो गई.
इन अधूरे वादों के कारण धरहरा के ग्रामीणों में स्वाभाविक तौर पर नाराज़गी है. वे कहते हैं कि सुविधाओं के मामले में हम शायद आदर्श गांव न भी बनें. लेकिन अपनी दशकों पुरानी अनूठी परंपरा के दम पर हमारा गांव हमेशा आदर्श गांव रहेगा.
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