लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जिनकी रोज़ी रोटी ही शक पर चलती है.
पति-पत्नी का एक दूसरे पर शक करना, मां-बाप का बच्चों पर शक करना, बॉस का अपने मातहत पर शक करना. इस शक ने जन्म दिया जासूसी उद्योग को और इनसे पैसा कमाने का मौक़ा मिला जासूसों को.
शक का दायरा जैसे-जैसे बढ़ने लगा इन जासूसों की दुनिया भी फलने फूलने लगी.
शक़ एक उद्योग
(जेम्स बॉन्ड जैसे काल्पनिक जासूसी किरदार सालों से हमारे ज़ेहन में छाए हैं)
इसीलिए ये कहने में कोई 'शक' नहीं है कि 'शक' ख़ुद एक उद्योग है.
शक के इस उद्योग पर दुनियाभर में सिर्फ़ एक क़िस्म के इंसान का दबदबा है जिसे 'जासूस' कहते हैं.
कल्पना कीजिए एक जासूस की. क्या ज़ेहन में आया एक लंबा इंसान, सर पर हैट, काला लंबा कोट पहने हुए और हाथ में सिगार लिए हुए.
जासूस की ये परंपरागत छवि हमारे दिमाग़ में आने की वजह है 'करमचंद' और 'जेम्स बांड' जैसे काल्पनिक किरदार.
लेकिन असल ज़िदगी के जासूस इनसे बिल्कुल अलग होते हैं.
कॉलेज से हुई जासूसी की शुरुआत
मुंबई के रहने वाले राज को वडा पाव के लालच ने जासूस बना दिया.
कॉलेज में इनके एक दोस्त का दिल एक लड़की पर आ गया. राज को ज़िम्मेदारी मिली चुपके से उसके बारे में सारी जानकारी हासिल करने की और ये काम इन्होंने बख़ूबी किया.
इन्हें अपनी इस पहली जासूसी का इनाम मिला एक वडा पाव और तभी से राज को लग गया जासूसी का चस्का.
वैसे इनके पास इंजीनियरिंग की डिग्री भी है लेकिन लोगों की ज़िंदगी में चुपके-चुपके झांकने का इन्हें कुछ ऐसा जुनून सवार हुआ कि ये 14 साल से जासूसी का धंधा ही कर रहे हैं.
शक़ एक उद्योग?
राज का मानना है कि शक वाक़ई एक उद्योग है.
राज कहते हैं, "अगर शक है तो हम हैं अगर शक नहीं तो कोई कैसे जासूस बनेगा. किसी भी गुनाह के साथ शक का जुड़ना ज़रूरी है. अगर शक ना हो तो कोई केस हल ही नहीं हो पाएगा."
राज के पास किस तरह के केस सबसे ज़्यादा आते हैं?
पति-पत्नी का 'शक'
उन्होंने बताया, "पति-पत्नी का एक दूसरे पर शक करना. इस तरह के केस सबसे ज़्यादा आम हैं. मेरे पास ऐसे कई घरेलू केस लगातार आते हैं. आजकल तो मां-बाप अपने बच्चों पर निगरानी रखने के लिए भी हमें नियुक्त करते हैं."
शक अगर एक जासूस का घर पालता है तो कहा ये भी जाता है कि शक लोगों के घर बर्बाद भी कर देता है.
शक की बुनियाद पर चल रहे जासूसी के काम से जुड़ी मंजरी लोगों की नज़रों में तो एक गृहिणी हैं पर वो एक जासूस भी हैं.
पिछले आठ सालों से मंजरी चोरी छुपे जासूसी के कई केस लेती हैं.
मंजरी का मानना है कि, "शक एक उद्योग नहीं है बल्कि असुरक्षा की भावना एक उद्योग है. इसी से शक जन्म लेता है."
कितना महंगा है शक?
लोगों को शक करना एक महंगा सौदा साबित हो सकता है. जी हां, लोग अपने शक को दूर करने या यूं कहें कि शक को यक़ीन में बदलने के लिए अपनी जेबें ढीली करने को तैयार होते हैं.
कई सालों से जासूसी का काम कर रही रजनी पंडित बताती हैं, "हमारी फ़ीस प्रतिदिन के हिसाब से होती है. केस के हिसाब से हमारी फ़ीस भी बदलती रहती है. जैसे किसी का पीछा करने के लिए बस, ट्रेन या टैक्सी में जाना है तो पैसा भी उसी हिसाब से लेते हैं. आम तौर पर मैं किसी केस के लिए छह से 10 हज़ार रुपए प्रतिदिन तक लेती हूं."
तकनीक का इस्तेमाल
ये जासूस अपने काम में अत्याधुनिक तकनीक का भी इस्तेमाल करने लगे हैं.
राज बताते हैं कि वो एक सॉफ्टवेयर की मदद भी लेते हैं जो उन्हें उनके शिकार, यानी जिसका पीछा कर रहे हैं, उनकी लोकेशन, उसे किसके फ़ोन आ रहे हैं, किसके एसएमएस आ रहे हैं, सब कुछ ट्रैक किया जा सकता है. राज ने बताया कि वो हर केस का 30 से 35 हज़ार रुपए तक लेते हैं.
मेरी इस मुलाक़ात के दौरान राज लगातार वाट्सऐप के ज़रिये अपने मुवक्किलों से लगातार संपर्क में थे.
राज ने बताया कि एक वक़्त था जब उनके पास पैसों की ज़बरदस्त तंगी थी, तब उनकी पत्नी ने घर चलाया लेकिन अब जासूसी के काम ने उन्हें भरपूर पैसा दिया और वो अपनी आर्थिक स्थिति से बड़े ख़ुश हैं.
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