श्रीलंका भारत का पड़ोसी मुल्क है. उसके साथ हमारे बहुत पुराने रिश्ते हैं. ऐसे में प्रधानमंत्री को इस राष्ट्रमंडल बैठक के लिए जरूर जाना चाहिए था.
लेकिन इसके साथ-साथ यह एक राजनीतिक फैसला भी है, हम जानते हैं कि विदेश नीति और बाकी राजनीतिक मुद्दों को अलग नहीं कर सकते हैं.
प्रधानमंत्री ऐसा भी कर सकते थे कि पहले वह जाफना के लिए जाते, ताकि भारत के जो मुद्दे हैं, उन्हें सामने रख कर राजपक्षे से उनकी मुलाकात हो सकती थी और हाल ही में चुने गए उत्तरी प्रांत के मुख्यमंत्री विघ्नेश्वरन से बात हो सकती थी. फिर प्रधानमंत्री कोलंबो जा सकते थे.
दोनों मुद्दे जो भारत के लिए अहम हैं, प्रधानमंत्री उन्हें बता सकते थे.
'राजनीतिक हार भी'
यह एक रणनीतिक हार ही नहीं, बल्कि राजनीतिक हार भी है. कांग्रेस या फिर या मनमोहन सिंह या इनकी पूरी हुकूमत इस बात को समझ नहीं पाए कि हम दोनों मुद्दों को साथ लेकर कैसे चलें.
ऐसा माना जाता है कि विदेश नीति के तौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं जाना चाहते थे और राष्ट्रमंडल बैठक में शामिल होना चाहते थे.
लेकिन उसके साथ-साथ उनकी जो चिंता है, खासकर तमिलनाडु के चुनावों को लेकर, ऐसी चिंता उन्हें होनी चाहिए थी.
प्रधानमंत्री के श्रीलंका न जाने से रिश्तों में बहुत बदलाव आएगा, क्योंकि श्रीलंका में बैठक में भारत के शामिल न होने पर अब यह लगेगा कि भारत अब उनका दोस्त नहीं रहा.
भारत ने श्रीलंका की बहुत मदद की है. खासकर लिट्टे को हराने में. अब जो बाकी देश हैं उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान और चीन उनके श्रीलंका के साथ रिश्ते और भी मज़बूत होंगे.
खासकर चीन, जो एशिया ही नहीं बल्कि विश्व की एक बड़ी अहम शक्ति के रूप में उभर कर सामने आ रहा है, रक्षा रणनीतिक मुद्दों को लेकर ही नहीं आर्थिक तौर पर भी उनकी और सहायता करेगा और उनके करीब आ जाएगा.
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