चीनी भाषा में ‘नी-हाव’ (क्या हाल हैं?) कहकर वो अपने अध्यापक का स्वागत करते हैं. ऐसे कई इंस्टीट्यूट नेपाल के कई हिस्सों में चल रहे हैं. यही नहीं चीन की सरकार ने नेपाल के लोगों को मुफ़्त में चीनी भाषा सिखाने के लिए बाक़ायदा अध्यापकों को चीन से काठमांडू भेजा है.
काठमांडू विश्वविद्यालय के कनफ़्यूशियस इंस्टीट्यूट और अंतरराष्ट्रीय भाषा संस्थान में चीनी भाषा और संस्कृति के बारे में सिखाने की व्यवस्था की गई है.
दशकों तक भारत के आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभामंडल में रहने के बाद अब नेपाल बाँहे फैलाकर हिमालय पार के अपने पड़ोसी देश चीन का स्वागत करने को तैयार है. और आने वाले वर्षों में नेपाल में अपनी भूमिका बढ़ने की संभावना को पहचानते हुए चीन ने भी हर क्षेत्र में सक्रियता बढ़ा दी है.
बढ़ता निवेश
सरकारी आँकड़ों को देखें तो पता चलता है कि चीन अब बड़ी परियोजनाओं में निवेश बढ़ाने की गंभीर कोशिश कर रहा है.
नेपाल के उद्योग विभाग के महानिदेशक ध्रुब राजबंशी ने बीबीसी से कहा, "अभी तक भारत से चीन में काफ़ी निवेश होता रहा है पर अब परियोजनाओं की संख्या के हिसाब से चीन दूसरे नंबर पर आ गया है. भविष्य में चीन हाइड्रो पावर में भी निवेश करना चाहता है. अगर ऐसा हुआ तो नेपाल में उसका निवेश काफी हो जाएगा."
आम तौर पर चीन ने नेपाल में रेस्त्राँ आदि में निवेश किया है. पर पहली बार अब वो हाइड्रो पावर क्षेत्र में आने की कोशिश कर रहा है. वो पश्चिम सेती में 1.6 अरब डॉलर यानी 86 अरब 40 लाख रुपए की लागत से 750 मेगावॉट की विद्युत परियोजना में निवेश करने को तैयार है.
इसके अलावा अपर तामाकोशी में 650 मेगावॉट की हाइड्रो पावर परियोजना के निर्माण का ठेका चीन की एक कंपनी को मिला है, हालाँकि इसमें पैसा नेपाल सरकार और नेपाली उद्योगपतियों का लगा है.
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक नेपाल में भारत 525 परियोजनाओं में शामिल है और कुल प्रस्तावित सीधे विदेशी निवेश में उसकी 46 प्रतिशत हिस्सेदारी है. जबकि चीन 478 परियोजनाओं में शामिल है. पर प्रस्तावित सीधे विदेशी निवेश में उसका हिस्सा सिर्फ़ दस प्रतिशत है.
इस साल निवेश के आँकड़े कहीं ज़्यादा दिलचस्प हैं. नेपाली साल जुलाई में खत्म होगा पर अब तक भारत के निवेश जहाँ 45.5 करोड़ रुपए का है, वहीं चीन का निवेश 61.30 करोड़ तक पहुँच गया है.
हिमालय के आर-पार
नेपाल और चीन के तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र के बीच 1400 किलोमीटर लंबी सीमा है. सदियों तक इस कठिन हिमालयी क्षेत्र के दोनों ओर रहने वाले लोगों के बीच मामूली संपर्क रहा था.
पर अब यहाँ चीन और नेपाल मिलकर कई नए रास्ते बना रहे हैं ताकि व्यापार और आने जाने में आसानी हो सके. जैसे तिब्बत में ग्यिरोंग और नेपाल में स्यापरू बेसी के बीच की कच्ची पगडंडी को चीन दो करोड़ डॉलर की लागत से पक्की सड़क में बदल रहा है.
ल्हासा से तिब्बत के दूसरे बड़े शहर शिगात्से तक की रेल पटरी को काठमांडू तक बढ़ाने की योजना भी है. कुल मिलाकर हिमालय की दीवार को भेदकर चीन अपनी व्यापारिक पैठ दक्षिण एशिया तक बनाना चाहता है.
नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार-विश्लेषक और हिमाल साउथएशिया पत्रिका के संपादक कनक मणि दीक्षित मानते हैं कि नेपाल और चीन के बीच में हिमालय की रुकावट अब नहीं रह गई है.
उन्होने बीबीसी हिंदी से एक बातचीत में कहा, "पहले नेहरू और चाउ एन लाई के बीच अघोषित समझौता था कि नेपाल हिमालय के दक्षिण में है इसलिए भारत के प्रभावक्षेत्र में रहेगा. पर अब अर्थव्यवस्था बदली है और नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता की वजह से चीन की दिलचस्पी बढ़ गई है. भारत भी अब इसे सिर्फ़ अपने प्रभावक्षेत्र वाले देश के तौर पर नहीं देखता बल्कि इस बात के प्रति सतर्क है कि चीन यहाँ कितना सक्रिय होगा."
दीक्षित मानते हैं कि बीजिंग ओलंपिक्स के दौरान नेपाल में तिब्बतियों के प्रदर्शनों के कारण चीन ने इस हिमालयी देश पर ध्यान देना शुरू किया है.
इसके अलावा चीन ने नेपाल के राजनीतिक नेतृत्व से भी संपर्क प्रगाढ़ करने शुरु कर दिए हैं. दो हफ़्ते पहले नेपाल की एकीकृत माओवादी पार्टी के चेयरमैन पुष्प कमल दहाल (प्रचंड) चीन गए थे और उसके बाद उनके भारत आने की संभावना भी है.
कनक मणि दीक्षित के मुताबिक राजशाही के दौर में विदेशी ताकतें सिर्फ़ राजमहल से संपर्क रखती थीं पर अब राजनीतिक अस्थिरता को देखते हुए कोई यह नहीं कह सकता कि आने वाले दिनों में नेपाल में कौन सी राजनीतिक ताकत मज़बूत होगी. इसलिए चीन ने राजनीतिक स्तर पर भी सभी पार्टियों से संपर्क बढ़ाना शुरू कर दिया है.
कल्चर का प्रभाव
विश्लेषक मानते हैं कि चीन की नेपाल में बढ़ती दिलचस्पी थोड़े वक़्त के लिए नहीं है बल्कि वो अगले 25-30 साल की योजना के तहत ये काम कर रहा है. चीन ने नेपाल के साथ सांस्कृतिक आदान प्रदान शुरू किया है और चीन में छात्रवृत्ति पाने वाले छात्रों की संख्या भी बढ़ रही है.
नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक युबराज घिमिरे का कहना है कि चीन ख़ुद को दुनिया के साथ बड़े शिक्षा केंद्रों में शामिल करने की कोशिश कर रहा है.
उन्होने कहा, "एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब नेपाल के भावी नेता पहले की तरह इलाहाबाद और वाराणसी में शिक्षित होने की बजाए बीजिंग और शंघाई से पढ़कर आएँ."
हालाँकि नेपाल की राजनीति में भारत का गहरा प्रभाव रहा है लेकिन वहाँ भारतीय मंसूबों को लेकर आम लोगों में गहरी आशंका भी पैठ गई है. कुछ साल पहले लोग ऋतिक रोशन की फ़िल्म का विरोध करने के लिए सड़कों पर उतर आए क्योंकि किसी ने अफ़वाह उड़ा दी थी कि उसमें नेपाल विरोधी बातें कही गई हैं.
काठमांडू में आम लोगों से बात करके अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वो चीन को अपना दोस्त राष्ट्र मानते हैं और भारत के साथ साथ बीजिंग से भी बराबरी के संबंध बनाकर रखना चाहते हैं.
काठमांडू के एक बाज़ार की ऊपरी मंज़िल में चल रहे स्कूल में चीनी भाषा सीखने आए राजू श्रेष्ठा चीन और वहाँ की भाषा में अपनी दिलचस्पी को इन शब्दों में बयान करते हैं, "चीन की जनसंख्या डेढ़ अरब है और अगर इसका एक प्रतिशत टूरिस्ट भी नेपाल आते हैं तो हमें रोज़गार की कोई कमी नहीं रहेगी."
नेपाल के नौजवान अपने देश में चीन की बढ़ती दिलचस्पी को एक अवसर के तौर पर देखते हैं.
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