इन मामलों से किस तरह निपटा जाए, इस बारे में बेंगलुरू के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और तंत्रिका विज्ञान संस्थान ने कुछ निर्देश जारी किए हैं.
इसमें पीड़ित परिवार, स्कूल, पुलिस और मीडिया की भूमिका पर ज़ोर दिया गया है.
बच्चे को दोबारा पीड़ा से कैसे बचाएँ?
बच्चों के यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों में अभिभावकों, डॉक्टरों, काउंसिलरों और पुलिस, सभी कई सवालों से जूझते हैं, जिनका जवाब राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और तंत्रिका विज्ञान संस्थान (निमहैंस) ने देने की कोशिश की है.
निमहैंस, बेंगलुरू के बाल और किशोर मनोविज्ञान विभाग के प्रोफ़ेसर डॉ. शेखर शेषाद्रि ने बीबीसी हिंदी को बताया, “जब बच्चों के साथ ऐसी घटनाएं होती हैं, तो बच्चे से जुड़े कई सवाल पूछे जाते हैं- नेकनियत से ही- ताकि अपराध करने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई हो सके. लेकिन बच्चे के लिए इंसाफ़ की ज़रूरत और उसके सशक्त पुनर्वास के बीच संतुलन बहुत मुश्किल हो जाता है.”
वो कहते हैं, “इन सब सवालों के कारण, बच्चा फिर से पीड़ा से गुज़रता है.” डॉ. शेषाद्रि ने कुछ ऐसे निर्देश पेश किए हैं, जिन पर यौन उत्पीड़न का शिकार हुए बच्चों के मामले में उनके परिवार, स्कूल, पुलिस और मीडिया भी अमल कर सकते हैं.
परिवार के लिए
बच्चों को यौन अपराध से बचाने वाला क़ानून कहता है कि पुलिस थाने में एफ़आईआर दर्ज होने के 24 घंटे के भीतर बच्चे को आपात चिकित्सा सेवाएं मुहैया कराई जानी चाहिए.
इस तरह की सेवा रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर और सरकारी अस्तपताल मुहैया कराते हैं. जिन अस्पतालों में विशेष किशोर पुलिस ईकाइयां काम कर रही हैं, वहां मामले की पूरी पूछताछ को एक ही बार में पूरा किया जा सकता है ताकि बच्चे से बार-बार सवाल न किए जाएं.
एक बार चिकित्सा जांच होने के बाद, निमहैंस या कोई अन्य प्रशिक्षित मनोविज्ञानी बच्चे को उस सदमे से उबरने और न्याय प्रक्रिया में भी मदद कर सकता है. (ये काम बच्चों की संवेदनशीलता से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय प्रोटोकॉल के आधार पर होता है और अदालती प्रक्रियाओं के तहत इसकी समीक्षा हो सकती है.)
माता-बिता को बच्चे के बयानों और उसकी दूसरी बातों की अनदेखा नहीं करना चाहिए. जब भी किसी तरह का संदेह हो तो अच्छा होगा कि विभिन्न स्रोतों से जानकारी जुटाएं और मामले का पता लगाएं. बच्चे को दोष क़त्तई न दें. बच्चे को सदमे और प्रताड़ना से उबरने के लिए माता-पिता का सहयोग बहुत ज़रूरी है.
स्कूलों के लिए
इस तरह के अपराधों को रोकने के लिए ज़रूरी है कि स्कूल ऐसी वर्कशॉप कराएं जिनमें बच्चों को उनकी निजी सुरक्षा और उससे जुड़े उपायों के बारे में बताया जाए.
स्कूलों में स्पष्ट दिशानिर्देश होने चाहिए कि ऐसी घटना होने की स्थिति से कैसे निपटना है. इन दिशानिर्देशों में ये बातें शामिल होनी चाहिए:
- ऐसा अपराध स्कूल के बाहर हो या भीतर, उसमें कर्मचारी लिप्त हो या कोई अन्य, स्कूल इस बात को स्वीकार करे.
- हर स्कूल में ऐसा एक व्यक्ति होना चाहिए जिसे बच्चे जानते हों और वो किसी बच्चे की तरफ़ से कथित उत्पीड़न की जानकारी दिए जाने पर मामले को संवेदनशील और विनम्र तरीक़े से संभाल सके.
- इसके बाद कोई अधिकारी (जैसे प्रिंसीपल) माता पिता को जानकारी दे.
- स्कूल को माता पिता की पूरी मदद करनी चाहिए और चिकित्सा और अन्य सुविधाएं दिलाने में सहयोग करना चाहिए.
स्कूल में अगर कोई प्रशिक्षित या बाल यौन हिंसा विशेषज्ञ न हो तो स्कूल को बच्चे से पूछताछ नहीं करनी चाहिए.
स्कूल को यौन हिंसा का शिकार होने वाले बच्चे के माता पिता और अन्य अभिभावकों के साथ सक्रिय सहयोग करना चाहिए और ऐसे मामलों में स्पष्ट रूख़ अपनाना चाहिए. स्कूल को इस बारे में भी सजग रहना चाहिए कि ऐसे मामले का अन्य बच्चों पर क्या असर हो सकता है और इस बारे में किसी विशेषज्ञ की सहायता ली जानी चाहिए.
बच्चे को वापस स्कूल में लाने और उसके साथ किसी तरह के भेदभाव को रोकने की तैयारी की जानी चाहिए ताकि वो फिर से बच्चों में घुलमिल सके.
पुलिस की भूमिका
अगर पुलिस में प्रशिक्षित व्यक्ति नहीं है, तो ऐसे मामले को किसी विशेषज्ञ को सौंपा जाना चाहिए और बच्चे को सदमे से उबारने के लिए फॉरेंसिक इंटरव्यू से जुड़े निर्देशों का पालन हो.
पुलिस को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि इस मामले में बच्चे से बात करते समय कोई जल्दबाज़ी न दिखाई जाए क्योंकि इससे बच्चा परेशान हो सकता है और उसकी सेहत पर इसका असर पड़ सकता है.
उदाहरण के लिए, बच्चे को फिर से अपराध वाली जगह पर ले जाना और उससे ये कहना है कि करके बताओ, क्या हुआ था, इससे बच्चा फिर पीड़ा से गुज़रेगा और उसके सामान्य होने की प्रक्रिया बाधित होगी. दूसरा इससे बिल्कुल सही जानकारी मिल पाएगी, इसकी भी संभावना कम रहती है.
पुलिस को समझना होगा कि फॉरेंसिक सबूत जुटाने के और भी कई स्वीकार्य पुख़्ता तरीक़े हैं.
मीडिया क्या करे
मीडिया को ऐसे मामलों में आशा जगाने का काम करना चाहिए न कि निराशा फैलानी चाहिए क्योंकि इससे बच्चे की पीड़ा और परिवार के लिए सामाजिक कलंक झेलने का डर बढ़ता है.
मीडिया को पीड़ित बच्चे की पहचान और निजता की रक्षा करनी चाहिए. परिवार को चिकित्सा और अन्य क़ानूनी प्रक्रियाएं पूरी करने देनी चाहिए और बार-बार अनुचित सवाल पूछ कर उनकी पीड़ा को और नहीं बढ़ाना चाहिए.
मीडिया ये बताने में परिवार की मदद कर सकता है कि उन्हें कहां से चिकित्सा, मानसिक स्वास्थ्य और क़ानूनी मदद हासिल कर सकते हैं.
बाल यौन शोषण पर रिपोर्टिंग में उन सुविधाओं और उपचारों के बारे में जानकारी पर बल दिया जा सकता है जो सदमे से उबरने के लिए बच्चे को मिल सकती हैं.
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