ये सभी उसके अपने परिजन हैं, लेकिन उसकी असामयिक मौत पर दो आंसू बहाने वाला कोई नहीं. किसी को अंतिम संस्कार की भी कोई जल्दी नहीं.
यहां तक कि मृत देह को धरती पर उतारने की पहल भी कोई नहीं कर रहा, बल्कि करीब डेढ़ दिन तक शव यूं ही फंदे से लटका रहा क्योंकि "मौताणा" तय नहीं हो पाया. मौताणा यानि मौत का मुआवजा.
यहां भी ज्यादातर फ़िल्मों की तरह पुलिस मूकदर्शक बनी रही.
ये घटना है उदयपुर के आदिवासी क्षेत्र झाड़ोल के चतरपुरा गांव में जहां एक 20 साल की निरमा कुमारी ने शादी के बाद बीते शनिवार को ख़ुदकुशी कर ली.
उदयपुर के आदिवासी अंचलों में किसी भी अस्वाभाविक या अप्राकृतिक मृत्यु पर कथित दोषी अथवा अपराधी से मौताणा वसूलने की प्रथा है.
पुलिस की खामोशी
इस घटना में भी निरमा कुमारी के पीहर पक्ष का आरोप था कि उसके ससुराल वालों ने निरमा की हत्या की है और इसलिए उन्हें अपना अपराध मानते हुए उन्हें “मौताणा” की राशि देनी चाहिए.
ससुराल पक्ष पर दबाव बनाने के लिए ही निरमा के पीहर वाले लोग तीर कमान, लाठियों और सरियों से लैस होकर चढ़ाई करने चतरपुरा गाँव पहुंचे थे.
घटना की सूचना मिलते ही पुलिस तुरंत मौके पर पहुंच गयी, लेकिन मौताणा प्रथा की वजह से शव को उतारा नहीं गया, बल्कि पहले पीहर पक्ष को सूचना भिजवाई गई.
बाद में पुलिस और प्रशासन की मौजूदगी में दोनों पक्षों के बीच समझाईश की गई, फिर शव का पोस्टमार्टम हुआ और उसके बाद अंतिम संस्कार.
उदयपुर के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक (एएसपी) हनुमान प्रसाद ने बताया कि पहली नज़र में यह मामला आत्महत्या का लगता है क्योंकि विवाहिता के पति और ससुर घर पर नहीं थे.
लेकिन चूंकि निरमा और शांति लाल पारगी का विवाह हुए बहुत अधिक समय नहीं बीता था, इसलिए मुकदमा दर्ज कर मामले की जांच की जायेगी.
सवाल उठता है कि पुलिस इन मामलों में सख़्ती क्यों नहीं करती? इस पर उनका जवाब था कि पुलिस का प्रयास यही रहता है कि मामले आपस में ही सुलझ जाएं.
पंचों का निर्णय
ऐसा देखने में आया है कि पुलिस यदि अधिक सख्ती करती है तो आदिवासी उस समय भले ही राजी हो जाएं पर अपने मन में दुश्मनी पाले रहते हैं और देर-सबेर अपने विरोधी आदिवासी समूह से बदला ज़रूर लेते हैं और कुछ तो इतने उग्र और हिंसक हो जाते है कि एक दूसरे की जान भी ले लेते हैं.
इस कुप्रथा पर आस्था, सेवा मंदिर सहित कुछ स्थानीय गैर सरकारी संस्थाओं ने केस स्टडी भी की हैं और राजस्थान वनवासी कल्याण परिषद् जैसी संस्थाएं आदिवासियों में जागरूकता पैदा करने का कार्य कर रही हैं.
उदयपुर के ही स्क्रिप्ट राइटर सुरेश रालोटी की निर्माणाधीन फिल्म “मेरा मिशन” भी मौताणा की प्रथा पर आधारित है.
राजस्थान वनवासी कल्याण परिषद् से जुड़ी डॉ. राधिका लड्ढा का कहना है कि आदिवासियों में प्रचलित यह प्रथा एक सामाजिक बुराई है जो शिक्षा के प्रचार और जागरूकता से धीरे धीरे कम तो हो रही है लेकिन अभी भी मौताणा के रूप में आर्थिक दंड वसूलने की प्रथा का पूरी तरह उन्मूलन नहीं हो सका है.
संदिग्ध परिस्थितियों में स्त्री या पुरुष की मौत होने पर उदयपुर के आदिवासी अपने गोत्र के पंच पटेलों के साथ बैठकर मौताणा तय करते हैं.
आस्था संस्थान ने दो साल पहले एक डॉक्यूमेंटेशन कराया, जिसमें ये बात सामने आई कि मौताणा के मूल में “न्याय” की भावना ही निहित थी.
यह एक कबीलाई व्यवस्था थी जिसका उद्देश्य “मिल बैठकर झगड़ों को सुलझाना”, पारंपरिक आदिवासी नियमों के तहत पीड़ित पक्ष को न्याय दिलाना और आर्थिक दंड के माध्यम से अपराध पर सामाजिक नियंत्रण था.
विकृत रूप
अब बहुत से मामलों में पारंपरिक “न्याय” की इस आदिवासी प्रथा का विकृत और हिंसक रूप देखने में आता है. अब कथित पंच पटेल पीड़ित को न्याय दिलाने के नाम पर इस प्रथा की आड़ में लोगों से धन ऐंठने लगे हैं.
देश की आज़ादी के 66 साल बाद भी उदयपुर के आदिवासी बहुल क्षेत्रों खेरवाडा, झाडोल, कोटडा, गिरवा, सलूम्बर और निकटवर्ती डूंगरपुर ज़िले के कुछ हिस्सों में आदिवासी अपनी इसी व्यवस्था पर कायम हैं. मौताणा की प्रथा इन क्षेत्रों के भील, गरासिया और इनकी उपजाति मीणा आदि में प्रचलित है.
निरमा जैसी विवाहिता की ससुराल में मृत्यु होने पर महिला का पीहर पक्ष उसके ससुराल वालों पर अक्सर “चढ़ोतरा” करने पहुँच जाता है.
इसी आशंका के चलते कई बार गांव वाले अपनी सुरक्षा के लिए घर छोड़ कर चले जाते हैं. चढ़ोतरा के दौरान घर जलाने, तोड़-फोड़ करने और हिंसा की घटनाएं भी देखने को मिलती हैं.
आस्था संस्थान के अश्विनी पालीवाल के अनुसार राजस्थान में “पंचायत उपबंध अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार अधिनियम 1996” के तहत आदिवासियों को छोटे-मोटे विवाद पारंपरिक तरीके से निपटाने की छूट है, लेकिन इस प्रथा के नाम पर हिंसा सही नहीं है.
बहुत से मामलों में तो पीड़ित को तो कुछ मिलता भी नहीं है और कई बार तो पीड़ित मौताणा की मांग करना भी नहीं चाहते पर वे भी अपनी जाति के पंचों के आगे कुछ नहीं कर पाते.
आदिवासी गांव में या सड़क पर मृतक का शव लेकर तब तक घेरा डालकर बैठे रहते हैं जब तक उनके मन लायक मौताणा राशि तय नहीं हो जाती.
मौताणा विवाहिता अथवा पुरुष की अकाल मृत्यु तक ही सीमित नहीं है. अब सड़क हादसों में पशुओं के मारे जाने या अस्पताल में बीमारी से मौत होने जैसे मामलों में भी इस प्रथा की आड़ में वसूली की कोशिश की जाती है.
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