इस सिलसिले में हुए जनमत संग्रह में अलग होने का 51.9 प्रतिशत लोगों ने समर्थन किया है जबकि 48.1 प्रतिशत ने ईयू के साथ रहने का समर्थन किया।
लेकिन क्या वजहें रहीं कि लोगों ने ईयू से अलग होने का समर्थन किया।
1. आर्थिक चेतावनी से चिढ़ गए लोग
ईयू से अलग होने को लेकर आर्थिक चेतावनियां धीमे धीमे शुरु हुईं लेकिन फिर इन चेतावनियों की बाढ़ सी आ गई। लोगों को बताया जाने लगा कि कैसे अगर वो ईयू के साथ रहेंगे तो फायदा होगा। आईएमएफ़, ओईसीडी, आईएफ़एस, बिज़नेस प्रमोशन से जुड़ी सीबीआई जैसी बड़ी-बड़ी वित्तीय संस्थाओं ने चेताया कि आर्थिक स्थिति ख़राब होगी, बेरोज़गारी बढ़ेगी और ब्रिटेन अलग-थलग पड़ जाएगा।
यहां तक कि अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और ब्रितानी वित्त मंत्रालय ने भी ईयू से अलग होने के नुक़सान बताए। ईयू के साथ रहने का समर्थन करने वाले कई लोग मानते हैं कि ये चेतावनियां कुछ ज़्यादा ही हो गईं।
अब माना जाता है कि लोग इन चेतावनियों से चिढ़े और इस पूरे मामले को व्यवस्था के खिलाफ़ एक क्रांति के तौर पर लिया। लोगों का ये भी मानना था कि जो लोग चेतावनी दे रहे हैं ईयू के साथ रहने में उनके हित जुड़े हुए हैं। नतीजा ये हुआ कि उन्होंने ईयू से अलग होने पर मुहर लगाई।
2. राष्ट्रीय स्वास्थ्य स्कीम का 350 मिलियन पाउंड ब्रिटेन को मिलेगा
ईयू से अलग होने वालों को एक बहुत ही मज़बूत नारा मिला। वो ये कि अगर ब्रिटेन ईयू से हटता है तो हर हफ्ते राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना के लिए 350 मिलियन पाउंड की राशि ब्रिटेन इस्तेमाल कर सकेगा।
हालांकि जांच से पता चलता है कि ये सही आकड़ा नहीं है लेकिन अलग होने वालों के लिए ये एक ज़बर्दस्त राजनीतिक नारा रहा क्योंकि आकड़ा बड़ा था। समझने में आसान था और लोगों से जुड़ा हुआ था।
3. नाइजल फ़राज का प्रवासियों के मुद्दे को प्रमुखता से उठाना
यूके इंडिपेंडेंस पार्टी यानी यूकिप के प्रमुख नाइजल फ़राज ने प्रवासियों के मुद्दे को ज़ोर शोर से उठाया था। आगे चलकर ये मु्द्दा ब्रिटेन की संस्कृति, पहचान और राष्ट्रीयता से जुड़ता चला गया।
परिणाम दिखाते हैं कि पिछले दस साल में दूसरे देशों से ब्रिटेन में आकर बसने वालों की बढ़ती संख्या से स्थानीय लोग बहुत प्रसन्न नहीं हैं। संभवत उन्होंने आने वाले 20 सालों में बढ़ते प्रवासियों के प्रभाव के बारे में सोचा होगा और अलग होने का निर्णय किया होगा।
4. लोगों ने प्रधानमंत्री की बात सुननी बंद कर दी
डेविड कैमरन पिछले कुछ वर्षों में कई बार जीत चुके हैं अलग-अलग मुद्दों पर। चाहे वो 2010 में गठबंधन बनाने की बात हो या फिर आम चुनाव या फिर पिछले दस साल में हुए दो जनमत संग्रह लेकिन इस बार क़िस्मत ने उनका साथ नहीं दिया।
ईयू के साथ रहने के अभियान का वो प्रमुख चेहरा थे और उन्होंने इस पूरे मसले को प्रधानमंत्री पर भरोसे से जोड़ दिया था। कहने का मतलब ये है कि उन्होंने इस मुद्दे पर अपना राजनीतिक करियर दांव पर लगाया और अब इसी कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा है।
5. लेबर पार्टी मतदाताओं से जुड़ने में नाकामयाब
ईयू में साथ रहने के अभियान को हमेशा से ही लेबर पार्टी के मतदाताओं का समर्थन चाहिए था लेकिन शायद ही ऐसा हुआ। इस मसले पर आगे लंबा पोस्टमार्टम चलेगा।
लेबर पार्टी के नेता अपने मतदाताओं का मूड तक ठीक से भांप नहीं सके। हालांकि जब तक उन्हें समझ में आया और उन्होंने इसका सामना करने के लिए प्रवासियों पर नियंत्रण जैसे क़दम सुझाए तब तक देर हो चुकी थी।
6. बोरिस जॉनन और माइक गोव जैसे नेताओं का ईयू से अलग होने को समर्थन देना
ऐसा अक्सर होता है कि किसी बड़े मुद्दे को कुछ बड़े नेता समर्थन देते हैं लेकिन बोरिस जॉनसन और माइकल गोव जैसे बड़े नेताओं ने अलग होने को समर्थन देकर मुद्दे को और बड़ा कर दिया।
जहां जॉनसन ने मतदाताओं से अलग होने की अपील को लेकर पूरे ब्रिटेन में बस से यात्राएं कीं वहीं गोव ने ईयू से अलग होने के बाद ब्रिटेन का एजेंडा क्या होगा। इसका मसौदा तैयार करने में समय लगाया।
7. बुजुर्ग मतदाताओं ने एक साथ वोटिंग की
मतदान कैसे हुआ, जवानों ने महिलाओं ने कैसे वोट किया इस पर एक्सपर्ट्स चर्चा करते रहेंगे लेकिन एक बात बिल्कुल स्पष्ट दिखी कि बुजुर्गों ने एकसाथ जमकर वोट किया और उन्हीं के वोट से जीत मिली है।
ये सच है कि आप जितने बुजुर्ग होते हैं आप वोटिंग को लेकर उतने ही ज़्यादा जागरूक भी हो जाते हैं। 2015 के चुनाव में 65 साल से ऊपर की उम्र वाले 78 प्रतिशत लोगों ने वोट दिया था।
8. यूरोप हमेशा से थोड़ा सा दूसरे ग्रह जैसा रहा
ब्रिटेन और यूरोप के संबंध कभी भी अच्छे और सामान्य नहीं रहे।
यूरोपीय समुदाय से जुड़ने में भी ब्रिटेन को भी बहुत समय लगा। 1975 में वोटिंग के दौरान भी ब्रिटेन बहुत प्रसन्न नहीं था।
हालांकि ये माना जाता है कि युवा ईयू के समर्थक हैं लेकिन वोटों के विश्लेषण के बाद ही ये स्पष्ट हो पाएगा।
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