ऐसी रही शुरुआत
मायावती का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था। दिल्ली के इंद्रपुरी इलाके में दो छोटे कमरे के मकान में इनका पूरा परिवार (मां-पिता और छह भाई, दो बहनें) रहता था। बचपन से ही माया नाम की इस बच्ची का सपना था कलेक्टर बनने का। बीएड करने के बाद वह प्रशासनिक सेवा की तैयारी में लग गईं। हालात ये थे कि दिन में वो बच्चों को पढ़ाती थीं और रात में खुद पढ़ती थीं। 1977 में इनको एक स्कूल टीचर की नौकरी करनी पड़ी। इसके बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी से इन्होंने एलएलबी किया और वकालत भी की।

इनका रहा सबसे बड़ा हाथ

वैसे ये बात शत-प्रतिशत सच है कि आज मायावती जो भी कुछ हैं, उसके पीछे सबसे बड़ा और अहम हाथ हैं कांशीराम का। वो 80 की दशक था जब कांशीराम को उत्तर-प्रदेश की इस काबिल प्रतिभा के बारे में मालूम पड़ा। उनके बारे में सुनने के बाद वह उनसे मिलने के लिए सीधा उनके घर पर आ गए। यहां उन्होंने इनसे बात की और इनके सपने के बारे में मालूम करने की कोशिश की।

जब कांशीराम ने मायावती से पूछा उत्‍तर प्रदेश की मुख्‍यमंत्री बनकर तुम्‍हें कैसा लगेगा

कांशीराम ने पूछा ये सवाल  
यहां कांशीराम को मालूम पड़ा कि वो एक आईएएस ऑफीसर बनकर समाज और लोगों की सेवा करना चाहती हैं। ये वो वक्त था जब उन्होंने मायावती से कहा कि वह उन्हें सीएम बनाएंगे। उस समय एक नहीं ऐसे कई ऑफीसर फाइलें लेकर उनके पीछे चलेंगे और उनके ऑर्डर का इंतजार करेंगे। यहां कांशीराम ने उनसे पूछा कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनकर तुम्हें कैसा लगेगा।

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किया उत्तर प्रदेश का रुख
कांशीराम ने दलितों के हित के लिए 14 अप्रैल 1984 को एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी बनाई। इसका नाम रखा बहुजन समाजवादी पार्टी। उनके इस कदम को सफल बनाने में अब मायावती ने भी उनका खूब साथ दिया। टीचर की नौकरी छोड़कर उन्होंने भी बसपा को ज्वाइन कर लिया। उत्तर-प्रदेश में दलित प्रत्याशियों की ज्यादा संख्या को देखते हुए कांशीराम ने यहीं पांव जमाने की ठान ली। अब पार्टी बनने के पांच सालों में इसको वोट बैंक तो मिला, लेकिन ज्यादा सफलता नहीं मिली।     

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पूरा श्रेय गया मायावती को
पार्टी को सफलता की ओर ले जाने का पूरा श्रेय मायावती को ही गया। ये बसपा की सबसे प्रमुख नेता बन गईं। इसकी शुरुआत हुई 1993 में। यहां से प्रदेश की राजनीति में एक बेहतरीन शुरुआत हुई। 1992 का वो दौर था जब बाबरी मस्जिद गिरने के बाद केंद्र में बीजेपी की सरकार गिर चुकी थी। प्रदेश में कांग्रेस के दलित वोट बैंक पर बीएसपी कब्जा कर चुकी थी। प्रदेश में बीजेपी को हराने के लिए कांशीराम ने एक बड़ा कदम उठाया। अब यहां इन्होंने सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव से हाथ मिला लिया। इसका नतीजा ये रहा कि 1993 में ये गठबंधन जीत गया। मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बनकर सामने आए और मायावती को दोनों दलों के बीच तालमेल बैठाने की जिम्मेदारी मिली।

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फाइनली बनीं यूपी की सीएम
काफी उठापटक के बाद 5 जून 1995 को बीजेपी के सहयोग से मायावती पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। ये वो पल था जब फाइनली कांशीराम का सपना पूरा हुआ। सीएम बनने के समय मायावती की उम्र सिर्फ 39 साल थी। यह एक ऐतिहासिक पल जब था, जब देश की प्रथम दलित महिला मुख्यमंत्री बनीं थी। यह सरकार वैसे सिर्फ चार महीने चली।

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एक बार फिर लौटा इनका दौर
इसके बाद एक बार फिर मायावती का दौर लौटा जब 1997 और 2002 में फिर से बीजेपी की मदद से वह मुख्यमंत्री बनीं। अब मायावती का कद पार्टी और प्रदेश की राजनीति में तेजी के साथ बढ़ रहा था। उधर, कांशीराम की छवि वक्त के साथ धुंधलाती जा रही थी। इसके साथ ही उनका स्वास्थ्य भी तेजी के साथ गिरने लगा था। नतीजा ये हुआ कि साल 2001 में उन्होंने मायावती को अपना राजनीतिक वारिस घोषित किया और 6 अक्टूबर 2006 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। इसके बाद बसपा की पूरी बागडोर आ गई मायावती के हाथों में और अब वो पार्टी की सर्वेसर्वा बनकर आगामी चुनाव में एक बार फिर अपनी जीत का डंका बजाने की तैयारी में लग गई हैं।

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