मंचीय कविता को साहित्य के दृष्टिकोण से क्या कहेंगे?
-मंचीय कविता तो ज्यादा चैलेंजिंग है। पहली ही शर्त होती है कि सरल होना चाहिए और सरल होना ही अपने आप में कठिन काम है। कविता के बारे में एक धारणा चली आ रही थी कि जो समझ में न आए, वही कविता है। आज स्थिति बिल्कुल उलट है। मंचीय कवियों के ठीक सामने जनता होती है। उसे अपनी बात इतने सहज तरीके से रखनी होती है कि सीधे-सीधे समझ में आ जाए और जो जनता के समझ में आ गयी उसे साहित्य नहीं कहेंगे आप।
फिल्मी गानों में जो बदलाव आया है, उसे कैसे देखते हैं?
-बदलाव, आज तो गालियां परोसी जा रही है फिल्मी गीतों के जरिए। यह अश्लीलता और फूहड़ता का दौर है, पर यकीन मानिए इनका प्रभाव भी क्षणिक होगा। हमारी संस्कृति और संस्कार ही अलाव नहीं करते हैं फूहड़ता को। वे लोग कुतर्क करते हैं जो ये कहते हैं कि जनता को ऐसी ही चीजें पसंद हैं। ससुराल गेंदा फूल इस गाने को जितना बिहार के युवाओं ने पसंद किया था, उतना ही दिल्ली और मुंबई में भी रिस्पांस मिला था।
साहित्य में प्रयोग कहां तक सही है?
-प्रयोग तो होना ही चाहिए। बिना इसके नई चीजें तो नहीं आएंगी। पहले तो पद्य का ही चलन था, इसके बहुत बाद गद्य आया तो इसे भी एक प्रयोग ही कहेंगे न। प्रयोग से भाषा सरल होती है और नयी चीजें सामने आती हैं।
- महेंद्र अजनबी