पटना ब्‍यूरो। फ़क़ीरी की जि़ंदगी जीने वाले हिन्दी के महान साहित्य सेवी आचार्य शिव पूजन सहाय का साहित्यिक व्य1ितत्व हिमालय की तरह ऊंचा था.उन्होंने काशी विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना मदन मोहन मालवीय की भांति साहित्य और शिक्षा के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उनके हाथ में संपादन की एक ऐसी क्षेणी-हथौड़ी थी, जिससे उन्होंने साहित्य के अनेक अनगढ़ पत्थरों को सुंदर मूर्तियों में गढ़ दिया। वे हिन्दी कथा-साहित्य में आंचलिक-बोध के प्रथम साहित्यकार थे.यह बातें शुक्रवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित जयंती-समारोह और लघुकथा-संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। उन्होंने कहा कि शिवजी राष्ट्रभाषा परिषद के मंत्री और फिर बाद में निदेशक के रूप में, 1950से 1959तक, कुल 9वर्षों तक, साहित्य सम्मेलन के परिसर में ही रहे।

-सरल-सहज और विनम्र थे

डा सुलभ ने कहा कि भारत सरकार के पद्म-भूषण सम्मान से विभूषित शिवजी के संपादन कौशल की कोई तुलना नही थी। कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचंद्र हों या कि कामायनी जैसे महाकाव्य के रचयिता महाकवि जयशंकर प्रसाद, सभी अपनी पुस्तकें, प्रकाशन के पूर्व आचार्य जी से दिखा लेना आवश्यक समझते थे। वे जितने बड़े विद्वान थे, उतने ही सरल-सहज और विनम्र भी। सम्मेलन के सभी लेखन-कार्य वे स्वयं करते थे.आरंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए, वरिष्ठ कवि और भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी बच्चा ठाकुर ने कहा कि, शिवजी कवि नहीं थे.किंतु उन्होंने गद्य-साहित्य को पद्य का लालित्य प्रदानकिया। कथा-साहित्य में आंचलिक-ध्वनि प्रथमबार उनकी ही पुस्तक देहाती दुनिया में सुनायी पड़ती है।

इस अवसर पर आयोजित लघु-कथा-गोष्ठी में वरिष्ठ लेखिका डा पूनम आनन्द ने चिंता शीर्षक से, डा पुष्पा जमुआर ने ज़हरीला कौन, ओम् प्रकाश पाण्डेय ने शेर का शिकारी शीर्षक से अपनी अपनी लघु-कथा का पाठ किया।.मंच का संचालन ब्रह्मानन्द पाण्डेय ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।