बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर का जाति उन्मूलन, लोहिया का 'सौ में पिछड़ा पावे साठ' और श्रीकृष्ण सिंह की अति पिछड़ा/अन्य पिछड़ा की बहस उल्लेखनीय है. बिहार में सामंती पहचानों से ग्रसित जातिगत आधार की जड़ें पुरानी हैं. धधकते खेत खलिहान बिहार के सामंती ताकतों के खिलाफ़ वामपंथी सशस्त्र संघर्ष का लोमहर्षक दस्तावेज़ हैं.
बिहार सरकार की ओर से 1971 में मुंगेरी लाल आयोग का गठन और लोकतंत्र को बचाने के लिए 1974 का जेपी आंदोलन भी उनमें से एक था, जिसमें महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी दूर करने के साथ सामाजिक परिवर्तन का नारा दिया गया. जाति तोड़ने और अंतर्जातीय विवाह से सामाजिक विभेद खत्म करने के लिए कई स्तर पर मजबूत कोशिशें हुईं.
नेतृत्व का सामाजिक समीकरण बदला. अंतिम पंक्ति को नेतृत्व की पहली कतार मिली. 1977 की जनता पार्टी की सरकार में कर्पूरी ठाकुर इस धारा के सर्वमान्य नेता थे. यह इस बात का भी प्रमाण था कि सर्वमान्य नेता बनने के लिए विचार और आचरण का मूल्य महत्वपूर्ण था, संख्या बल नहीं. आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1977 में दी थी.
मंडल बनाम कमंडल
जनता पार्टी की सरकार ने 1978 में उन सिफारिशों को स्वीकार करते हुए लागू कर दिया जिसमें 127 पिछड़ी जातियों की पहचान करके सामाजिक न्याय का व्यावहारिक शास्त्र गढ़ा गया था. हालांकि उच्च जाति के लोग इसके बाद कल तक के सर्वमान्य नेता कर्पूरी ठाकुर को पिछड़ी जाति का नेता समझने लगे और जाति की राजनीति खत्म होने के बजाय संगठित होने लगी.
उसी दौरान केंद्र में जनता पार्टी ने भी देश में सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए मोरारजी देसाई की सरकार की अगुवाई में 1979 में मंडल आयोग का गठन किया. वीपी सिंह की सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने की कोशिश की और आखिरकार सभी सिफ़ारिशों को तो नहीं लेकिन 1993 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने आरक्षण की सिफारिशों को लागू कर दिया.
सामाजिक न्याय और हिंदुत्व के टकराव में सामाजिक ताना-बाना चरमराया. लालू प्रसाद की सरकार ने आडवाणी का रथ बिहार में रोका. मुसलमानों का विश्वास सामाजिक न्याय की सरकार पर बढ़ा. बिहार की राजनीति में यादव और मुसलमान की संयुक्त ताकत परवान चढ़ी. पटना का गांधी मैदान विभिन्न जातियों की रैलियों का गवाह बना.
लालू की राजनीति
पिछड़ी जातियों में भी नेतृत्व की महत्वाकांक्षा का जगना और असंतोष का बढ़ना स्वाभाविक था. हालांकि उसे रोकने के लिए सामाजिक न्याय को मजबूत कदम उठाने के बजाय लालू प्रसाद ने अगड़ी जातियों के विरुद्ध कथित तौर पर 'भूरा बाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला) साफ करो' का नारा दिया. केवल घृणा की राजनीति उन्हें रोक नहीं पाई.
मंझोली जातियों की असंतुष्ट धारा ने उच्च जाति के साथ संगठित होकर नया विकल्प उभारा और जिन्होंने राजद को सत्ता से बाहर रखने के लिए नीतीश कुमार में संभावना तलाश की और उनका साथ दिया. केंद्र में एनडीए की सरकार ने राज्य में लालू-राबड़ी के सरकार के प्रति गुस्से को आधार बनाया. बिहार में भी राजग की सरकार बनी.
एक नए सामाजिक समीकरण जिसमें मंझोली जातियों के नेतृत्व के साथ सरकार में प्रमुखता भी रही और अगड़ी जाति की सत्ता में भागीदारी भी. बिहार की एनडीए सरकार ने इस नए सामाजिक समीकरण में जाति के ऊपर विकास के मुद्दे को रखा.
नए सामाजिक समीकरण
सकारात्मक नज़रिए से अतिपिछड़ा, महादलित, महिला आरक्षण जैसे कई महत्वपूर्ण कदम उठाकर सब को साथ लेकर चलने वाले विकास पर जोर दिया. अल्पसंख्यकों का विश्वास भी बढ़ने लगा. नए सामाजिक समीकरण से दो ध्रुवों के दुर्लभ मिलन का नतीजा भी आने लगा. बिहार में कानून-व्यवस्था की दशा थोड़ी बदली.
सरकार की खर्च करने की ताकत तेजी से बढ़ी लेकिन सरकार पर नौकरशाहों की पकड़ बढ़ती चली गई. आधारभूत संरचना के विकास में महत्वपूर्ण उपस्थिति दिखी. राज्य की सकल घरेलू आमदनी अभूतपूर्व दर से बढ़ने लगी लेकिन भूमि सुधार के मसले से जुड़ी बंद्योपाध्याय समिति और समान शिक्षा प्रणाली के लिए मुचकुंद दूबे समिति की रिपोर्ट लागू नहीं कर पाई.
फिर भी एनडीए की पहली पारी तो राजद-कांग्रेस के बुरे अनुभवों से निकलने के सुखद एहसास में कट गई. दूसरी पारी में उन्हें जनता ने फिर से भारी बहुमत से जिताया. इस पारी में भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर सबसे पहले विधायक विकास निधि को खत्म करने का साहस किया जिससे विधायकों में असंतोष बढ़ा.
बरमेश्वर मुखिया प्रकरण
सरकार के सामने अपनी ही पिछले पारी से आगे निकलने की चुनौती थी. जदयू के साथ भाजपा की अप्रत्याशित बढ़ोतरी ने घटक दलों का टकराव भी बढ़ा दिया. सेवा का अधिकार कानून, सालाना आमदनी का हिसाब, भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान ने नौकरशाहों के एक धड़े को नाराज कर दिया.
बरमेश्वर मुखिया की हत्या के कारण आतंकी जुलूस पर छूट और शिक्षकों के धरने पर लाठियाँ बरसाने की विसंगति ने शिक्षकों की नाराजगी बढ़ा दी. इसी बीच भाजपा ने चुनाव प्रचारक की घोषणा की तो इसने एनडीए की खटास को इतना बढ़ा दिया कि जदयू एनडीए गठबंधन से अलग हो गया. बाद में चुनाव प्रचारक ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार हो गया.
सत्ता से अलग हुए दोस्त दुश्मन हो गए. राजनीतिक तोड़-जोड़ का दौड़ चला. चुनाव घोषणा के साथ सामाजिक समीकरण बदलने की चाल और तेज हो गई. कल तक साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़नेवाले वरिष्ठ पिछड़े और दलित नेताओं को भाजपा भा गई तो कुछ को जदयू.
मुसलमान मतदाता
राजद कांग्रेस का गठजोड़ हुआ और जदयू भाकपा का. अगर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच टिकटों के बँटवारे पर गौर करते हैं तो सामाजिक समीकरण का नया संस्करण दिखता है. अब मुसलमान और यादवों का समीकरण केवल राजद में नहीं बल्कि जदयू और भाजपा में भी है. पिछड़ी जातियों को भी सभी दलों ने टिकट दिया है.
मोटे तौर पर दलबदलुओं को टिकट देने में वामपंथियों को छोड़कर किसी ने परहेज नहीं किया जिससे कार्यकर्ता असंतुष्ट होते दिखे. मतदाताओं की बहुलता को ध्यान में रखकर सभी दलों ने टिकट बांटे हैं. उम्मीदवार की जाति और पार्टी के शीर्ष नेता की जाति ने स्थानीय मतदाता के सामाजिक समीकरण को प्रभावित किया है.
राजद प्रमुख ने अगड़ी जाति से गलतियों को माफ करके अवसर देने की गुहार लगाई. इस बार राजद का कांग्रेस से गठबंधन होने के कारण अगड़ी जाति के मतदाता राजद के उम्मीदवार का समर्थन देते देखे गए. आडवाणी की तरह मोदी को रोकने के लिए मुसलमान मतदाताओं को जदयू की ओर जाने से रोकने की कोशिश की.
जातिगत समीकरण
जदयू के पिछड़े मतदाता राजद और भाजपा के समर्थन में बंटते देखे जा रहे हैं. अगड़ी जाति के गैर कांग्रेसी मतदाता जदयू और भाजपा के समर्थन में देखे गए. दलित मतदाता भी राजद, वामपंथ और जदयू की ओर मुड़ते दिखे.
जदयू नेता विकास के बदले मजदूरी मांगते और मुद्दों पर बहस करते हैं. महिला मतदाताओं में राजद, जदयू, और भजपा को कार्यकर्ता की सजगता के अनुपात में समर्थन करते देखा जा रहा है. इस प्रकार इन नए उभरते राजनीतिक समीकरणों के साथ विकास की राजनीति के बीच जाति का सामाजिक समीकरण भी बदल रहा है.
ऐसे में बिहार की राजनीति कैसी करवट लेती है, ये देखना दिलचस्प होगा.
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