ये सभी मामले 1971 में पाकिस्तान से बांग्लादेश की आज़ादी के लिए लड़े गए युद्ध के समय के हैं, जिनसे जुड़े मामले एक युद्ध अपराध न्यायाधिकरण में चले.
सुनवाई के दौरान एक व्यक्ति को छोड़कर सभी को दोषी पाया गया. दोषियों में शामिल कट्टरपंथी इस्लामी नेता अब्दुल कादर मुल्ला को फाँसी दे दी गई है. उन्हें ढाका के उपनगर मीरपुर में निहत्थे नागरिकों और बुद्धिजीवियों की हत्या का दोषी पाया गया था.
एक नज़र उन लोगों पर जिन्हें युद्ध अपराध प्राधिकरण की सुनवाई के दौरान सज़ाएं सुनाई जा चुकी हैं लेकिन उनके मामले सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं.
दिलावर हुसैन सईदी- मौत की सज़ा
दिलावर हुसैन सईदी को जून 2010 में गिरफ़्तार किया गया था और उन्हें 1971 के मुक्ति संग्राम में जनसंहार, बलात्कार और अन्य अपराधों का दोषी करार दिया गया.
उन्होंने फांसी की सज़ा के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील की है.
सईदी पर मुक्ति संग्राम के दौरान अल बदर संगठन के साथ मिलकर कई तरह के अत्याचार करने का आरोप था, जिसमें हिन्दुओं को जबरन इस्लाम क़बूलवाना भी शामिल था.
सईदी इस समय 72 साल के हैं और उनके आलोचक कहते हैं कि युद्ध के दौरान बांग्लादेशी हिंदुओं की संपत्ति लूटने और उन पर कब्जा करने के लिए एक छोटा दल तैयार किया.
उनके समर्थक कहते हैं कि दूसरे अभियुक्तों की तरह वो भी इस्लामी विद्वान हैं और कई सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं.
अली अहसान मोहम्मद मुजाहिद- मौत की सजा
जमात-ए-इस्लामी के नेता अली अहसान मोहम्मद मुजाहिद पर नरसंहार और प्रताड़ना के आरोप थे. सात में से पांच आरोपों में उन्हें दोषी पाया गया और अदालत ने उन्हें मौत की सज़ा सुनाई.
अभियोजन पक्ष का कहना था कि मोहम्मद मुजाहिद ने बांग्लादेश की आज़ादी का समर्थन करने वाले नेताओं और बुद्धिजीवियों की हत्या के लिए एक मिलिशिया का नेतृत्व किया था.
मुजाहिद 1971 में छात्र नेता थे और उन लोगों में से थे जो संयुक्त पाकिस्तान का समर्थन करते थे.
बांग्लादेश को आज़ादी मिलने के बाद जमात के अन्य नेताओं की तरह वह भी भूमिगत हो गए थे. लेकिन 1977 में एक सैन्य तख़्तापलट के बाद जनरल ज़ियाउर रहमान के सत्ता में आने के बाद वो मुख्यधारा में लौट आए.
बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की सरकार में 2001-2006 के दौरान मुजाहिद समाज कल्याण मंत्री भी बने.
सलाहुद्दीन कादिर चौधरी- मौत की सजा
सलाहुद्दीन कादिर चौधरी बांग्लादेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं और विपक्षी बीएनपी पार्टी के वरिष्ठ और प्रभावशाली नेताओं में उनकी गिनती होती है.
उन्हें 23 मामलों में दोषी ठहराया गया. उन पर भी सैकड़ों हिंदुओं को जबरन इस्लाम कबूलवाने का आरोप था.
अभियोजन पक्ष के वकीलों का कहना था कि उन्होंने युद्ध के दौरान चटगांव के अपने पैतृक घर का इस्तेमाल प्रताड़ना देने के लिए किया.
उनकी पार्टी ने उन पर लगाए गए आरोपों को राजनीतिक साज़िश बताया है.
उनके वकीलों का कहना है कि वो अदालत के फैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील करेंगे.
मोहम्मद कमरुज़्ज़मा- मौत की सजा
जमात-ए-इस्लामी के सहायक महासचिव मोहम्मद कमरुज़्ज़मा को मई 2013 में आजादी की लड़ाई के दौरान हत्याकांड की साज़िश रचने का दोषी पाया गया.
युद्ध अपराध अदालत ने पाया कि उन्होंने पाकिस्तानी सेना के साथ मिलकर सुहागपुर गांव में करीब 120 किसानों को मौत के घाट उतार दिया. इसके बाद इस गांव को विधावाओं का गांव कहा जाने लगा.
सुनवाई के दौरान तीन विधावाओं ने कमरुज़जमा के ख़िलाफ़ गवाही दी.
उन पर मानवता के ख़िलाफ़ अपराध के सात मामले थे, जिनमें से पांच में उन्हें दोषी पाया गया.
ग़ुलाम आज़म- 90 साल की जेल
युद्ध अपराध अदालत ने युद्ध से जुड़े पाँच मामलों में जमात-ए-इस्लामी के 90 वर्षीय नेता गुलाम आज़म को मानवता के खिलाफ अपराध के लिए दोषी ठहराया है.
ग़ुलाम आज़म को युद्ध के दौरान हज़ारों लोगों की हत्या और बलात्कार के मामलों में शामिल होने के लिए 90 साल की सज़ा सुनाई गई है. आज़म 1969 से 2000 तक जमात-ए-इस्लामी के नेता थे. कई लोग उन्हें अपना आध्यात्मिक नेता मानते हैं.
उनके सहयोगी उन्हें लेखक और इस्लामी विद्वान मानते हैं. आज़म ने पाकिस्तान से बांग्लादेश की आज़ादी का कड़ा विरोध किया था. उनका कहना था कि इससे मुसलमान समुदाय बंट जाएगा.
मोतिउर रहमान निजामी- फैसले का इंतजार
मोतिउर रहमान निजामी जमात-ए-इस्लामी के नेता हैं. उन पर अल बदर ग्रुप को संगठित करने का आरोप है, जिसने 1971 में बांग्लादेश के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी.
निजामी बांग्लादेश की संसद के लिए दो बार निर्वाचित हुए हैं. उन्होंने 2001-06 के बीच गठबंधन सरकार के मंत्री के तौर पर भी काम किया है. उन पर हत्या, युद्ध अपराध जैसे कई मामले चल रहे हैं. अभी फैसले का इंतजार है.
निजामी ने करीब 20 किताबें लिखी हैं, जिनमें से अधिकतर इस्लाम के बारे में ही हैं.
उनके खिलाफ मामले में अभी फैसला नहीं आया है.
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