कानपुर। चांद पर इंसान के कदम रखने की 50वीं वर्षगांठ मानव जाति के इतिहास में किसी मील के पत्थर से कम नहीं है। इस लूनर मिशन की कामयाबी के लिए स्पेस एजेंसी को कई चुनौतियों से पार पाना पड़ा, नासा की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक इसके चलते कई सारी नई तकनीक ईजाद हुईं, जिसे बाद में मानवता के भले के लिए बड़े पैमाने पर अपनाया गया।
डिजिटल फ्लाइट कंट्रोल
चांद के सफर में अपोलो 11 को मंजिल तक पहुंचाने में जिस डिजिटल फ्लाई-बाय-वायर कंट्रोल सिस्टम ने महत्वपूर्ण योगदान दिया वह आज विमान सेवाओं का अनिवार्य अंग बन गया है। इतना ही नहीं आज यह कारों तक में इस्तेमाल हो रही है। उसके पहले तक लोगों ने उसका नाम तक नहीं सुना था। जब अपोलो कार्यक्रम शुरू हुआ, तब पायलट विमानों को मेकेनिकली नियंत्रित किया करते थे। चंद्रमा के तीन दिन के सफर व उसकी सतह पर उतरने के दौरान किसी भी तरह की मानवीय चूक की गुंजाइश खत्म करने के लिए नासा ने ड्रेपर लेबोरेटरीज को अपोलो कमांड मॉड्यूल और लूनर मॉड्यूल के लिए एक कंप्यूटर गाइडेंस सिस्टम तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी। अपोलो अभियान की सफलता के बाद, नासा और उसके सहयोगियों ने सिस्टम को हवाई जहाज में उपयोग लायक बनाने के लिए लिए वर्षों बिताए, जहां अब यह तकनीक आम हो चुकी है। इतना ही नहीं क्रूज कंट्रोल, एंटीलॉक ब्रेक और इलेक्ट्रानिक कंट्रोल सिस्टम जैसे ऑटोमोबाइल फीचर्स में भी फ्लाई-बाय-वायर तकनीक का उपयोग हो रहा है।
फूड सिक्यूरिटी
इस मिशन की कामयाबी के लिए नासा के सामने आई कई समस्याओं में से एक यह भी थी कि अंतरिक्ष यात्री जो खाना साथ ले जा रहे हैं वह रोगाणुओं से मुक्त हो जिससे कि उसे खाकर वह बीमार न पड़े। स्पेस एजेंसी ने फूड मैन्यूफक्चरर पिल्सबरी को समस्या से निपटने में मदद करने के लिए कहा। कंपनी को जल्दी ही पता चल गया कि क्वालिटी कंट्रोल के मौजूदा तौर-तरीकों से यह काम नहीं होने वाला है। तैयार माल की जांच कर समस्या का पता लगाने की बजाय कंपनी ने एक पूरी नई व्यवस्था विकसित की जिसे हेजर्ड एनालिसिस एंड क्रिटिकल कंट्रोल पॉइंट (एचएसीसीपी) नाम दिया गया। इसमें कच्चे माल से लेकर उसके तैयार होने व वितरण तक क्वालिटी कंट्रोल सुनिश्चित किया जाता है। बीते कई दशकों से पिछले कुछ दशकों से, अमेरिकी सरकार ने एचएसीसीपी प्रक्रियाओं को मांस, पोल्ट्री, समुद्री भोजन और जूस उत्पादकों के लिए अनिवार्य किया हुआ है।
स्पेस ब्लैंकेट
संपूर्ण अंतरिक्ष कार्यक्रम के सबसे अधिक प्रचलित स्पिनऑफ में से एक का आविष्कार अपोलो-युग के स्पेस सूट के लिए किया गया था। यह आमतौर पर इमरजेंसी किट और मैराथन के आखिर में दिए जाने वाले 'स्पेस ब्लैंकेट' के तौर पर अधिक प्रचलित है। नासा ने पाया कि हल्के मैयलर की कई धातु वाली चादरें बिछाकर, यह अन्य उपलब्ध किसी भी चीज की तुलना में अधिक प्रभावी रिफ्लेक्टिव इंसुलेशन बना सकता है। नासा ने समय के साथ इसकी शक्ति, निर्माण तकनीक और परीक्षण प्रक्रियाओं में सुधार कर इस प्रौद्योगिकी में महारत हासिल की। इसके निर्माण के बाद से ही नासा के हर अंतरिक्ष यान और स्पेससूट में इस इंसुलेशन का उपयोग किया गया है, और अब इसका उपयोग कपड़ों, फायरफाइटिंग, कैंपिंग उपकरणों, क्रायोजेनिक स्टोरेज, एमआरआई और पार्टिकल कोलाइडर समेत अनेक जगहों पर हो रहा है।
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क्वेक प्रूफिंग
एक तकनीक जिसका विकास अपोलो-युग के शॉक एबजॉबर व कंप्यूटरों के साथ हुआ, अब दुनिया भर में इमारतों और पुलों को भूकंप से बचाती है। कंपनी जिसने लॉन्च के दौरान अपोलो के सैटर्न वी रॉकेट की विशाल भुजाओं को संभालने के लिए डैम्पर्स का निर्माण किया, को इस मिशन के लिए पारंपरिक शॉक आइसोलेशन टेक्नोलॉजी को सीमाओं से परे जाना पड़ा। 1960 के दशक के मध्य में नासा के एक हाइड्रोलिक्स-आधारित एनालॉग कंप्यूटर के निर्माण में मदद करने की एक अन्य परियोजना पर काम कर रही कंपनी ने, द्रव विज्ञान पर शोध किया और एक ऐसे तरल पदार्थ को विकसित किया जिसका प्रदर्शन मौजूदा तकनीक से बेहतर था। नासा ने बाद में हर स्पेस शटल लॉन्च के लिए उन एडवांस डैम्पर्स का इस्तेमाल किया। दशकों से कंपनी उसी तकनीक का उपयोग करके द्रवयुक्त शॉक एबर्जाबर बना रही है, जो अब दुनिया भर में सैकड़ों इमारतों, पुलों और अन्य संरचनाओं के लिए भूकंप के झटके झेलने में मददगार हैं।
रिचार्जेबल हियरिंग एड
चंद्रमा के उतरने के दशकों बाद भी, अपोलो कार्यक्रम की नई स्पिनऑफ प्रौद्योगिकियां बाजार में आती रहती हैं। दुनिया की पहली व्यावहारिक रिचार्जेबल हियरिंग एड बैटरी, 2013 में आई, जो नासा के अपोलो के दौरान और बाद में किए गए व्यापक कार्य पर आधारित है। चंद्रमा पर जाने वाले कमांड मॉड्यूल में सिल्वर-जिंक बैटरी का उपयोग किया गया, जो सबसे हल्का ज्ञात बैटरी युगल है। लेकिन एजेंसी सेल्स को रिचार्जेबल बनाना चाहती थी, और नासा के इनोवेटर्स ने कई वर्षों तक सेल सेपरेटर और इलेक्ट्रोड पर शोध कर तकनीक में बहुत सुधार किया - हालांकि यह कभी अंतरिक्ष तक नहीं पहुंच सकी। 1996 में स्थापित एक कंपनी ने उस जगह से शुरुआत की जहां तक काम कर नासा और अन्य ने छोड़ दिया था, वर्षों की मेहनत के बाद यह एक व्यावहारिक उत्पाद का रूप ले सकी। हियरिंग एड बैटरियां हमेशा से डिस्पोजेबल रही हैं, क्योंकि जिंक बैटरियां जो आकार में छोटी हो सकती हैं, वे रिचार्जेबल नहीं होती हैं। लिथियम-आयन बैटरी बहुत छोटी नहीं हो सकती है और उनमें ओवरहीटिंग जैसी समस्या हो सकती है। अब, नई सिल्वर-जिंक हियरिंग एड बैटरी बिना रिचार्ज के पूरे दिन चलती है और 1,000 बार से अधिक रिचार्ज भी की जा सकती है। अब इनका उपयोग बोन-एंकर्ड हियरिंग सिस्टम व नॉयस-कैसेंलिंग वायरलेस इयरबड्स में भी हो रहा है।
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