अंटार्कटिक महाद्वीप के इस सुदूर उत्तरी हिस्से में चारों ओर दूर-दूर तक बर्फ की चादर पसरी हुई है. आंखों को चौंधियाने वाले उजाले को देखकर लगता है, यहां का नजारा सदियों से ऐसा ही रहा होगा. लेकिन, इस के पीछे का जो सच अभी नजर नहीं आ रहा है, वह है धरती की शक्ल-सूरत के बदल जाने की आशंका. अंटार्कटिक महाद्वीप में जिस रफ्तार से बर्फ पिघल रही है, यदि उसे नहीं रोका गया तो आने वाले दिनों में धरती का आकार-प्रकार बदलना तय है.

 

गर्म पानी अंटार्कटिक की बर्फ को तेजी से निगल रहा है. अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा ने सेटेलाइट से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर एक दशक में 118 अरब मीट्रिक टन पानी प्रति वर्ष समुद्र में गिरने का अनुमान लगाया है. तुलनात्मक नजरिये से देखा जाए तो इतने पानी से ओलंपिक के 13 लाख से ज्यादा स्विमिंग पूलों को भरा जा सकता है. लेकिन, मुसीबत यहीं पर खत्म नहीं होती. बर्फ पिघलने की रफ्तार लगातार बढ़ती ही जा रही है. इसके चलते अगले सौ सालों में समुद्र का सतह तीन मीटर तक बढ़ जाएगा, जिसका नतीजा ये होगा कि तटीय शहरों में लोगों को पीछे हटना होगा. घनी आबादी वाले महानगरों में तो लाखों लोगों को पुनर्वास की समस्या से जूझना होगा.

क्लाइमेट चेंज का ग्राउंड जीरो

हार्वर्ड विश्वविद्यालय के भूभौतिकी वैज्ञानिक जेरी मित्रोविका के अनुसार, अंटार्कटिक महाद्वीप के कई हिस्से जिस तेजी से पिघल रहे हैं, उससे यह जलवायु परिवर्तन का ग्राउंड जीरो बन गया है. अंटार्कटिक प्रायद्वीप के पास बर्फीली धरती का संपर्क गर्म समुद्री धारा से होता है. यहां पर बर्फ पिघलने की रफ्तार सबसे तेज है. नासा का कहना है कि यहां पर लगभग 45 अरब टन बर्फ हर साल पिघल रही है. नीचे से गर्म पानी का अटैक और ऊपर से गर्म हवाओं के थपेड़े मिलकर यहां की जमीन को लगातार पीछे की ओर धकेल रहे हैं. हालांकि, अंटार्कटिक प्रायद्वीप का 97 फीसद हिस्सा अब भी बर्फ से ढंका हुआ है, लेकिन यह रुपहली वादी अब महफूज नहीं है. पिछले 10 सालों से यहां स्टडी कर रहे ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे के पीटर कनवे के मुताबिक, बर्फ की पट्टी पतली होती जा रही है. ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं.

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