दंगे होते हैं या करवाए जाते हैं? यह बहस बहुत पुरानी है.
पर क्या वाक़ई कहीं भी दंगे करवाना और भड़काना इतना आसान है? क्या सही में नफ़रत की खेती कोई कर रहा है या यह वह पौधा है, जो अपने आप ही उग रहा है.
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पिछले दिनों कानपुर के पास कुछ बंदरों की लाश मिलने पर दंगे भड़क उठे. दिल्ली में कभी बाग़ में तो कभी सड़क पर सिर कटे जानवर फेंके जाने के बाद नवंबर में कई जगह दंगे भड़क उठे.
बीते हफ्ते सप्ताह गुजरात के सोमनाथ में बीच सड़क पर हुए एक मामूली सी दुर्घटना के बाद सांप्रदायिक दंगे हुए. हैदराबाद में इस साल एक धर्म का झंडा जलने के बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा में तीन लोग मारे गए.
पिछले दो सालों में, 2013 और 2014 अक्तूबर तक, केवल उत्तरप्रदेश में 102 लोग सांप्रदायिक दंगों में मारे गए हैं. पिछले छह महीने में हुए कई लोकसभा और राज्यसभा सत्रों में सांप्रदायिक दंगों का मुद्दा हावी रहा.
क्या कहते हैं आंकड़ें?
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) मुताबिक 2013 में भारत में 72,126 दंगे दर्ज हुए थे. एनसीआरबी के मुताबिक भारत में साल 2000 से 2013 के बीच हर साल औसतन 64,822 दंगे हुए हैं.
हालांकि इन आंकड़ों में सभी तरह के दंगे शामिल हैं, जहां गैरकानूनी तरीके से भीड़ ने जबरन बल इस्तेमाल किया हो.
लेकिन अगर सांप्रदायिक दंगों की बात की जाय, तो इस साल अक्तूबर तक हर महीने भारत में 56 दंगे हुए हैं जिसमें 90 लोग मारे गए हैं और 1688 घायल हुए हैं. पिछले साल इस समय तक 133 लोग सांप्रदायिक दंगों में मारे गए थे.
संसद में दंगों को लेकर हुई बहस में गृह राज्य मंत्री किरन रिजिजू ने बताया कि ज़्यादातर सांप्रदायिक दंगे सोशल मीडिया पर आपत्ति जनक पोस्ट, लिंग संबंधी विवादों और धार्मिक स्थान को लेकर हुए हैं.
'दंगे हमेशा करवाए जाते हैं'
भारत में दंगों और उसके कारणों को लेकर बहुत कम शोध हुए हैं. जानकर मानते हैं कि इसका बहुत बड़ा कारण सही आंकड़ें न मिल पाना और सांप्रदायिक दंगों के केस का कोर्ट में लंबे समय तक चलना है.
पूर्व आईएएस अफ़सर और सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर मानते हैं दंगे कभी अपने आप नहीं होते.
उनका कहना है, "मैं सामाजिक हिंसा का अध्ययन पिछले कई सालों से कर रहा हूँ और यह बात पक्के तौर से कह सकता हूँ कि दंगे होते नहीं पर करवाए जाते हैं. मैंने बतौर आईएएस कई दंगे देखे हैं. अगर दंगा कुछ घंटों से ज़्यादा चले तो मान लें कि वह प्रशासन की सहमति से चल रहा है."
मंदर इन दिनों भारत में पिछले कुछ दशक में हुए दंगों पर शोध कर रहे हैं और कहते हैं कि दिल्ली में पिछले दिनों जो हुआ, उससे यह स्पष्ट है कि राजनीतिक संगंठनों के लिए किसी को भी लड़वाना आसान है.
वह कहते हैं की दिल्ली में 1984 से 30 सालों के बाद तक कभी त्रिलोकपुरी जैसी घटना नहीं हुई तो फिर अचानक क्यों?
हर्ष मंदर का कहना है, "दंगे करवाने के लिए तीन चीज़ें बहुत जरूरी है. नफ़रत पैदा करना, बिल्कुल वैसे जैसे किसी फैक्टरी में कोई वस्तु बनती हो. दूसरा, दंगों में हथियार, जिसका भी प्रयोजन होता है."
उन्होंने बताया, "अगर बड़े दंगे करवाने हैं तो छुरी और सिलिंडर बांटे जाते हैं और सिर्फ एक तनाव का वातावरण खड़ा करना हो तो ईंट-पत्थर. तीसरा है, पुलिस और प्रशासन का सहयोग जिनके बिना कुछ भी मुमकिन नहीं."
खाकी का रंग
जाने-माने पूर्व आईपीएस अफ़सर जुलियो रिबेरो और विभूति नारायण राय ने दंगों में पुलिस की भूमिका को लेकर सवाल उठाए हैं.
पूर्व आईपीएस अफ़सर सुरेश खोपड़े दंगे रोकने के लिए महाराष्ट्र के भिवंडी में किए गए प्रयोग के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने एक किताब 'मुंबई जल रहा था पर भिवंडी क्यों नहीं' भी लिखी है.
सुरेश खोपड़े कहते हैं, "भारत में पुलिस बल में सिर्फ चार फ़ीसदी मुसलमान हैं और बाक़ी के 96 फ़ीसदी में कई लोग सांप्रदायिक सोच वाले होते हैं लेकिन दंगे न रुक पाने के कारण कुछ और हैं."
उन्होंने कहा, "इतने दंगों के बावजूद किसी भी सरकार ने पुलिस बल को ऐसे मामले रोकने के लिए सशक्त नहीं किया. भिवंडी में दंगे आम बात हो गई थी. जब मेरी वहां पोस्टिंग हुई तो मैंने मोहल्ला कमेटी बनाई और पुलिस कॉन्स्टेबल को उनका अध्यक्ष रखा."
पुलिस फोर्स
सुरेश बताते हैं, "इन कमेटियों से जातियों के बीच की नफ़रत कम हुई. वहीं भारत में पुलिस बल में 95 फ़ीसदी कॉन्स्टेबल्स हैं लेकिन उन्हें इज़्ज़त नहीं मिलती. इस प्रयोग से वह भी खुद को फ़ोर्स का एक मुख्य हिस्सा मानने लगे."
वो कहते हैं, "किसी भी दंगे को रोकने के लिए ख़ुफ़िया सेवा का होना भी ज़रूरी है लेकिन पुलिस का यह विभाग बिल्कुल निष्क्रिय हो गया है. लोगों को पुलिस पर भरोसा नहीं है. लेकिन इस प्रयोग से हमारे पास जानकारी आने लगी और सिर्फ दंगे ही नहीं बल्कि सभी अपराध कम हुए."
खोपड़े कहते हैं कि कई बार पुलिस भी दंगाइयों पर नरमी बरतती है. उनका मानना है, "कोई भी पुलिस अफ़सर अपने इलाक़े में दंगा नहीं होने देना चाहता लेकिन पुलिस के पास भीड़ को काबू करने के तरीके ही नहीं हैं और न ही उनके पास कोई ऐसे हथियार हैं."
केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के साथ जुड़ी संस्था नेशनल फाउंडेशन फॉर कम्युनल हॉर्मनी सामाजिक एकता के लिए काम करती है.
फाउंडेशन के सचिव अशोक सज्जनहार कहते हैं, "हम पोस्टर्स छपवाते हैं, सामाजिक एकता पर स्कूली बच्चों के लिए निबंध और चित्र प्रतियोगिता आयोजित करते हैं. "
लेकिन क्या इस तरह के किसी कार्यक्रम से कुछ फर्क पड़ता है, इस पर उनके पास भी कोई पुख्ता जवाब नहीं.
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