कहानी :
ये कहानी सस्ता सेनेटरी पैड की मशीन ईजाद करने वाले एक विज़नरी इंसान अरुणाचलम मुर्गनाथम की जर्नी का फिल्मी रूपांतरण है, जो समाज से लड़ कर समाज की जननी यानि महिलाओं को सम्मान दिलाने की कोशिश में जुटा है।
समीक्षा :
पहले तो आर बाल्की को एक स्टंडिंग ओवेशन, कि उन्होंने एक जटिल और जानदार कहानी को सुनाने की हिम्मत की और फ़िल्म को जितना हो सका उतना पटरी पे रखा। फ़िल्म का फर्स्ट हाफ थोड़ा स्लो है पर अपनी बात टू द पॉइंट रखता है। फ़िल्म का ये हिस्सा औरतों की मेंस्ट्रुअल हेल्थ में पैड और पैडमैन की ज़रूरत क्यों है इस बात के लिए है। सेकंड हाफ पैडमैन लक्ष्मीकांत की जंग की कहानी है, पर सोनम कपूर इस फ़िल्म में क्यों है, ये मेरी समझ से परे है, इसी तरह से फ़िल्म में जबरन ठूसा लव एंगल भी बेमानी है। इस काऱण से फ़िल्म अपनी पटरी से कभी कभी भटक सी जाती है। ऐसा लगता है कि आर बाल्की सटलटी खत्म होती जा रही है, अब उनका कहानी सुनाने के लहज़ा बडा लाउड होता जा रहा है। शायद इसका कारण है अक्षय का लार्जर देन लाइफ सिनेमेटिक पेर्सोना, इस रोल में इरफान खान जैसा कोई अदाकार होता तो शायद ये फ़िल्म कुछ और ही होती। फ़िल्म की राइटिंग अच्छी है, सिनेमाटोग्राफी भी बढ़िया है, एडिट बेहतर होनी चाहिए थी, फ़िल्म 15 मिनट छोटी होती तो शायद ज्यादा अच्छी बनती।
अदाकारी :
बहुत सालों से जो जगह स्मिता पाटिल के निधन के कारण सिनेमा जगत ने खाली छोड़ी हुई थी, वो आज लगता है कि राधिका आप्टे से भरी जा सकती हैं। हर फिल्म में उनका रोल चाहे कैसा भी हो वो उसमे रच बस जाती हैं। उनके परफ़ॉर्मेंस के आगे इस फ़िल्म के बाकी सभी परफॉर्मेंस बौने लगते हैं। अक्षय बिल्कुल वैसे ही जैसे टॉयलेट एक प्रेम कथा में थे, पर यहां वो थोड़े बेहतर लगे हैं। पर फिर भी ये उनकी सबसे अच्छी परफॉर्मेंस में से एक है। कुल मिलाकर ये फ़िल्म एक अच्छी फिल्म है और हर एक 'मर्द' को ज़रूर देखनी चाहिए ताकि वो अपनी ज़िंदगी से निकल कर औरतों की ज़िंदगी की दिक़्क़तों और परेशानियों को बेहतर समझ सके। ये एक फेमिनिस्ट फ़िल्म नहीं है, ये एक इंस्पिरेशनल फ़िल्म है, समाज को बदलने की मुहिम छेड़ती है।
रेटिंग : 3.5 स्टार
Yohaann Bhargava
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