पिछली शाम ही उनकी बात केदारनाथ मंदिर में काम करने वाले एक दूसरे पंडित से हो रही थी.
मुद्दा था रिकॉर्ड स्तर पर आए हुए श्रद्धालुओं की भीड़ और कुछ को दर्शन के लिए मिलने वाला मात्र एक मिनट.
उस शाम बारिश हो रही थी और पंडित शास्त्री ने भीगते हुए नीचे की दुकान पर जाकर अपने लिए पांच पैकेट बिस्कुट खरीदे थे.
उन्हें नहीं पता था कि अगले तीन दिनों तक उनकी भूख-प्यास में सिर्फ़ यही बिस्कुट उन्हें जीवित रखने वाले हैं.
रात भर भीषण बारिश और बादल गरजने की आवाज़ से बेचैन रहे पंडित शास्त्री 17 जून को सुबह उठे और घर के बाहर ही खड़े थे कि पीछे से लोगों के चिल्लाने की आवाज़ आई, "बादल फट रहा है बाढ़ आ रही है, भागो".
उन्होंने आनन-फानन में अपने घर के भीतर जाकर दरवाज़ा बंद कर लिया और पहली मंज़िल पर ये देखने गए कि माजरा क्या है.
इस बीच केदारनाथ मंदिर के पीछे के पहाड़ से एक पूरी नदी के बराबर का पानी आ रहा था जिसमें बड़े पत्थर (बोल्डर) शामिल थे.
आज के दिन
एक वर्ष बाद केदारनाथ में अपने तहस-नहस हो चुके घर के सामने खड़े होकर पंडित शास्त्री के आँखों में आसूं भी है और भय भी.
उन्होंने कहा, "पहली मंज़िल पर एक खिड़की पकड़ कर मैंने दो दिन काटे थे. लेकिन पूरे 11 महीने बाद लौटने पर भी सब कुछ जस का तस ही है. सिर्फ़ मंदिर में कुछ पुजारी पूजा-अर्चना करवा रहे हैं. तीर्थयात्री तो सिर्फ़ 20 या 30 ही दिख रहे हैं".
पंडित शास्त्री सच्चाई बयान कर रहे थे. केदारनाथ पूरे एक वर्ष बाद भी वैसा ही उजाड़ है जैसा मैंने खुद 21 जून, 2013 को देखा था.
सैंकड़ों धर्मशालाएं तहस-नहस पड़ी हुई हैं, मंदिर के चारों ओर बाढ़ में बह कर आए विशालकाय बोल्डर बिखरे है और आज भी मलबे के नीचे से शवों के पाए जाने की आवाज़ सुनाई देती है.
भक्त बहादुर और राज बहादुर नाम के दो व्यक्ति एक टूटे हुए मकान के सामने मुझे बीड़ी पीते मिलते हैं.
दोनों नेपाल के रहने वाले हैं और पिछले 12 वर्षों से केदारनाथ में तीन महीने के लिए बॉर्डर पार करके रोज़ी की तलाश में आते रहे हैं.
दोनों ही 16 जून, 2013 की रात को रामबाड़ा से एक गुजराती दंपति को अपनी पीठ पर लाद कर मंदिर के निकट छोड़ कर गए थे तभी बारिश शुरू हो गई.
मंदिर के पट
भक्त बहादुर ने बताया, "हमें क्या मालूम था कि सुबह हुई तबाही में वो पूरी धर्मशाला ही बह जाएगी जहाँ उन दोनों को छोड़ा था. हमने तो जान बचा ली, लेकिन नेपाल से हमारी तरह हर सीज़न में आने वाले सैंकड़ों कुली आज भी नहीं मिले. नेपाल जा कर उनके गांवों में देखिए, उनके बच्चे आज भी इंतज़ार कर रहे हैं".
आपदा के तीन महीने बाद ही गत वर्ष सितंबर में केदारनाथ मंदिर के पट खोल दिए गए थे और वहां पूजा शुरू कर दी गई थी.
हालांकि सच्चाई ये है कि आपदा के एक वर्ष बाद जब हम मंदिर के ठीक सामने पहुंचे तो तीर्थयात्री इतने भर थे कि उँगलियों पर गिने जा सकते थे.
मंदिर के भीतर मात्र सात पुजारी मौजूद थे जो बुझे मन से श्रद्धालुओं को एक-एक कर पूजा करवा रहे थे.
मंदिर के अंदर तो सब सामान्य लगता है लेकिन वहां के चबूतरे से खड़े होने पर पूरा केदारनाथ आज भी किसी श्मशान से कम नहीं दिखता.
ये वही चबूतरा है जहाँ पिछले वर्ष सैंकड़ों शव नदी के सैलाब में बह कर आ गए थे और मंदिर के बाहर पांच फुट मलबा जम गया था.
अभी भी बरामद हो रहे हैं कंकाल
संजय शर्मा इस साल केदारनाथ के दर्शन करने के लिए हेलीकॉप्टर से पहुंचे हैं.
संजय शर्मा दिल्ली से इस वर्ष दर्शन करने के लिए एक निजी हेलीकॉप्टर सेवा से पहुंचे हैं.
उन्होंने कहा, "मुझे पूरा भरोसा है कि यहाँ मलबे के नीचे अभी भी सैंकड़ों शव दबे होंगे. सरकार से प्रार्थना है कि पूरे इलाक़े की दोबारा खुदाई करवाएं".
संजय की तरह कई अन्य हैं जिन्होंने महीनों से सरकार पर दोबारा शवों को ढूढ़ने का दबाव बना रखा है.
कुछ ही दिन पहले केदारनाथ और गौरीकुंड के रास्ते पर जंगलचट्टी नामक इलाक़े में 10 कंकाल बरामद हुए थे.
इसके बाद से प्रदेश सरकार ने पुलिस महानिरीक्षक के रैंक के अफ़सर की अगुवाई में एक व्यापक खोजी दल का गठन किया है.
इस दल का काम होगा उन सैंकड़ों लोगों के शवों को ढूंढना जिनका आज तक कोई सुराग नहीं मिल सका है.
जान बचाने में रहे सफल
गाज़ियाबाद के रहने वाले जनार्दन राय और उनकी पत्नी केदारनाथ हादसे के चश्मदीद रहे हैं.
इस बीच केदारनाथ में कुछ ऐसे भी लोग मिले जिन्होंने पिछली बार मौत को तो बहुत क़रीब से देखा मगर जान बचाने में सफल रहे.
गाज़ियाबाद के जनार्दन राय और उनकी पत्नी अंजुला ने पिछले वर्ष 15 जून को केदारनाथ की चढ़ाई शुरू ही की थी कि ख़राब मौसम का संदेश पहुंचा और उसके बाद तबाही की ख़बरें आने लगीं.
वापस तो लौट गए लेकिन इस प्रण के साथ की दोबारा आएंगे.
जनार्दन राय ने बताया, "पिछली बार ऊपर वाले ने जान बचाई तो इस बार तो उनका दर्शन करने आना ही था. हमें तो कोई दिक़्क़त नहीं हुई पहुँचने में, बस हेलीकॉप्टर से आए हैं तो किराया तो होगा ही."
लेकिन हक़ीक़त यही है कि हर वर्ष की तुलना में अगर इस वर्ष लगभग एक चौथाई तीर्थयात्री में धामों की यात्रा पर उत्तराखंड आ गए तो बड़ी बात होगी.
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