हिंदू कैलेंडर के अनुसार मकर सक्रांति को शीत ऋतु का अंत माना जाता है.
तारुका गांव में आयोजित हुए इस उत्सव को देखने बीबीसी नेपाली के संजय ढकाल पहुंचे.
नेपाल को लंबे अर्से से पहाड़ और आध्यात्म के लिए जाना जाता है. शायद ही किसी को लगता हो कि यहां सांड की लड़ाई का आयोजन भी होता है.
लेकिन नेपाल का एक गांव ऐसा भी है जहां 19वीं सदी के आखिरी सालों से इसका आयोजन किया जा रहा है.
सांडों को भरपूर मात्रा में चावल, काली दाल और छोले खिलाकर इस परंपरागत लड़ाई के लिए तैयार किया जाता है.
बिष्णु श्रेष्ठ का कहना है कि वे अपने सांड (जिसका नाम 'सुपारी' है) की देखभाल वैसे ही करते हैं जैसे वे अपने माता-पिता का करते हैं.
श्रेष्ठ अपने सांड को थपथपाते हुए गर्व से कहते हैं कि वह उनको कभी निराश नहीं करता.
जब हट्ठे-कट्ठे सांडों को खुले मैदान में लाया जाता है और खुला छोड़ दिया जाता है तो वे तुरंत एक-दूसरे पर टूट पड़ते हैं.
लड़ाई के दौरान दो सांडों के सींग एक-दूसरे से फंस जाते हैं. और यह तब ख़त्म होता है जब दोनों में से एक सांड थक जाता है और लड़ाई का मैदान छोड़कर भाग जाता है.
जानवरों के अधिकार के लिए काम करने वाले कुछ कार्यकर्ताओं ने चिंता जताई है कि इस तरह की प्रतिस्पर्धा जानवरों पर होने वाली क्रूरता को बढ़ा सकते हैं, लेकिन आयोजक इससे इनकार करते हैं.
तारुका ऊंचाई पर स्थित नेपाल का एक ठेठ पहाड़ी गांव है. गांववाले लड़ने वाले सांडों को नहीं पालते हैं. वे लड़ाई में खेती में काम आने वाले बैल का इस्तेमाल करते हैं.
सांड की लड़ाई देखने दूर-दूर से लोग आते हैं. यह इधर के कुछ सालों में यह बहुत लोकप्रिय हो गया है.
दर्शकों को सिर्फ रस्सी के घेरे के सहारे लड़ाई के मैदान से दूर रखा जाता है. अगर सांड उनकी ओर दौड़े तो उनके पास दौड़ कर जान बचाने के अलावा कोई चारा नहीं है.
आयोजन के दौरान लोग इस उत्सव जैसे माहौल का आनंद परंपरागत वाद्य यंत्र बजाकर लेते हैं.
लोग इस सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजन स्थल तक पैदल तीखी चढ़ाई को पार कर आते हैं.
गांववाले इस अवसर का इस्तेमाल रास्ते के किनारे सब्जी और फल की दुकान लगाकर पैसा कमाने में करते हैं.