फरवरी, 1986 में राजीव गांधी सरकार के अयोध्या में विवादित ढांचे का ताला खुलवाने के बाद उत्तर भारत के कई बड़े शहरों में दंगा शुरू हो गया था. जनपद में अप्रैल 1987 में दंगा भड़का, जिसे काबू भी कर लिया गया था. इसके बाद सुरक्षा बलों की 38 टुकड़ियों को हटा लिया गया. फिर 18 मई को दोबारा से शहर में फसाद शुरू हो गया. 18 और 19 मई को मेरठ में भयानक दंगा भड़का, लेकिन हाशिमपुरा और आसपास के मुहल्ले शांत थे. 21 मई को हाशिमपुरा के बगल के मुहल्ले में एक युवक की हत्या के बाद माहौल गरमा गया. देखते ही देखते कई इलाकों में मारकाट मचने लगी. दुकान और मकान फूंके जाने लगे. हाशिमपुरा के एक ही समुदाय के 42 लोगों की हत्या कर दी गई, लेकिन दिल दहला देने वाले दृश्यों को बयां करने के लिए इनमें से पांच किसी तरह बच गए.
जवानों पर लगे हत्या के आरोप
आरोप है कि हाशिमपुरा में दंगे के दौरान बड़ी संख्या में पीएसी के जवान पहुंचे थे. इन जवानों ने वहां मस्जिद के सामने चल रही धार्मिक सभा में से मुस्लिम समुदाय के करीब 50 लोगों को हिरासत में लिया और ट्रक में डालकर ले गए. फिर 42 लोगों की गोली मारकर हत्या कर उनके शव नहर में बहा दिए थे. बाद में 19 लोगों को हत्या, हत्या का प्रयास, साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ और साजिश रखने की धाराओं में आरोपी बनाया गया. वर्तमान में आरोपी बनाए गए 16 लोग जीवित हैं. उत्तर प्रदेश की सीबीसीआइडी ने 161 लोगों को गवाह बनाया था.
पीडि़तों की मांग पर दिल्ली ट्रांसफर हुआ था केस
दंगा पीडि़तों के आवेदन पर सुप्रीम कोर्ट ने मामले को 2002 में दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया. 2002-04 तक उप्र सरकार ने अपनी ओर से इस मामले में वकील नहीं किया. मार्च 2004 से 2006 तक दो वकील नियुक्त हुए पर दोनों विफल रहे. अब वकील सतीश टमटा इस मामले की पैरवी कर रहे हैं. शनिवार को फैसला आएगा.
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